साधु-संन्यासियों की संगठित फौज नहीं, उनका कोई नगर नहीं, राजधानी नहीं….यहां तक कि ज्ञात किला भी नहीं। पर ये लड़ाकू साधु-संन्यासी अंग्रेजी फौज से दो-दो हाथ करने से नहीं घबड़ातें। उन्हें धूल चटा देते हैं….। कलकत्ते में बैठकर पूरे देश पर नियंत्रण बनाने का ख्वाब रखने वाले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को ये बातें बेहद परेशान करती थीं। वे कई बार साधु-संन्यासियों की हरिध्वनि से वे कांप जाते थे। उनके सिपाही भी भयभीत रहने लगे थे। ”वंदे मातरम्…” गीत के रचयिता कवि-उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी उपन्यास “आनंदमठ” में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध का यह वृतांत बड़ी खूबसूरती से प्रस्तुत है।
कुंभ के दौरान विभिन्न अखाड़ों के साधु-संन्यासियों के जिस जमात को देखते हैं, वे विदेशी आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ाने वाले उन साधु-संन्यासियों की परंपरा वाले ही तो हैं। लगभग बाइस सौ साल पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षार्थ संत समाज को संगठित किया था। अतीत के झरोखे से झांककर देखने से पता चलता है कि आदि शंकर ने साधु-संन्यासियों की फौज न तैयार की होती तो भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखना असंभव हो गया होता। इतिहास गवाह है कि अहमदशाह अब्दाली ने जब मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण किया तो नागा साधुओं ने ही गोकुल की रक्षा की थी।
यह जरूर है कि कालांतर में परिस्थितियां बदलती गईं तो साधुओं की भूमिकाएं भी बदलती गईं। तपोनिधि श्री आनंद अखाड़ा पंचायती के अध्यक्ष श्रीस्वामी सागरानंद सरस्वती कुछ साल पहले ही परलोक गमन कर चुके। मेरा सौभाग्य है कि उनका सानिध्य मिलता रहा। वे कहा करते थे, “आधुनिक युग में साधु-संन्यासियों को योग और तप के बल पर मानवता की रक्षा करनी है। योग की शक्ति असीमित है। तभी भक्तियोग के महान संत ज्ञानेश्वर महाराज की बाल सुलभ हठ के कारण ईश्वर को पत्थर से प्रकट होकर भोजन करना पड़ा था। आमलोगों को भले पता न चले। परन्तु योगियों-संन्यासियों के तप से मानवता का बड़ा कल्याण होता है। यदि ये तपस्वी न रहें तो अनर्थ हो जाए।“
यह सच है कि साधु-संन्यासियों की शक्तियों से समाज को होने वाले लाभों के बारे में आम लोगों को जानकारी कम ही होती है। तभी अक्सर साधु-संन्यासियों को लेकर कई सवाल खड़े किए जाते हैं। यथा इन नागा साधुओं की आधुनिक युग में क्या उपयोगिता है? महाकुंभ के बाद पहाड़ों में कंपा देने वाली सर्दियों के दौरान खुले बदन किस तरह जीवित रह जाते हैं? वे वहां करते क्या हैं और क्या खाकर जिंदा रहते हैं? उनकी अदम्य शक्ति का स्रोत क्या है? जो साधु पहाड़ों में नहीं रहतें, वे आश्रमों में क्या करते होंगे? आदि आदि।
आईए, योग-शक्ति के आलोक में इन सवालों के उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। बिहार योग के जनक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती से किसी शिष्य ने पूछ लिया कि अखाड़ों के साधु-संन्यासियों की वर्तमान समय में क्या उपयोगिता रह गई है? स्वामी जी ने उत्तर दिया, “ये साधु-संन्यासी आध्यात्मिक ऊर्जा से इतने ओतप्रोत होते हैं कि मानवता के कल्याण के लिए अपने साधना स्थल से ही हमें आदेश देते हैं। उनके आदेशों का पालन करने के बाद हमलोग भी वहीं चले जाते हैं।“
साधु-संन्यासियों की आध्यात्मिक ऊर्जा हर काल में समाज के काम आती रहती हैं। जापान में समुराई समुदाय के लोगों को सेना में भेजने से पहले योगबल से उनके हारा-चक्र का जागरण कराया जाता था। इससे वे इतने शक्तिसंपन्न हो जाते थे कि दुश्मनों का टिक पाना मुश्किल होता था। उसी हारा को तंत्र विद्या में स्वाधिष्ठान चक्र या अंग्रेजी में सेक्रल कहा गया है। अपने देश के साधु-संन्यासी भी संन्यास-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण को कई कारणों से अहम् मानते हैं। कहा गया है कि इसके जागरण से आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से मुक्ति मिलती है। साधक बलशाली हो जाता है। साथ ही आज्ञा चक्र पर भी सकारात्मक प्रभाव होता है, जो अंतर्ज्ञान का कारक है। इस तरह साधु-संन्यासियों की शक्ति का राज आसानी से समझा जा सकता है।
पर भोजन का प्रबंध कैसे होता है? साधु-संन्यासियों ने कभी अपनी साधना में अन्न और जल को आड़े नहीं आने दिया। इसमें खेचरी मुद्रा की बड़ी भूमिका होती है। ज्यादातर संन्यासियों की कोशिश होती है कि खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाए। इससे कई अलौकिक शक्तियां मिलने के साथ ही उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। निराहारी योगिनी बंगाल की ऐसी ही महिला संत थी। उन्हें पचास वर्षों तक किसी ने अन्न-जल ग्रहण करते नहीं देखा। बर्द्धमान (पश्चिम बंगाल) के महाराज सर विजयचंद्र महताब ने उनकी तीन-तीन कठिन परीक्षाएं लीं। यह जानने के लिए कि वाकई वे अन्न-जल के बिना जीवित हैं। निराहारी योगिनी हर बार कसौटी पर खरी उतरीं। परमहंस योगानंद से लेकर मां आनंदमयी तक उस सिद्ध संत से मिले थे।
हिमालय की वादियों में कई स्थानों पर तापमान माइनस 30 डिग्री या उससे भी अधिक होता है। वैसे में खासतौर से नागा संन्यासियों के जीवन को लेकर आमलोगों के मन में कौतूहल उठना लाजिमी है। दरअसल प्राणायाम और प्रत्याहार की क्रियाएं इतनी शक्तिशाली हैं कि उनके कई परिणाम चमत्कार जैसे लगते हैं। इस संदर्भ में एक मजेदार वाकया है। परमहंस योगानंद अपने मित्र के साथ यात्रा कर रहे थे। कड़ाके की ठंड थी और एक ही कंबल में दोनों सो गए थे। मित्र ने नींद में कंबल खींच लिया और परमहंस जी ठिठुरने लगे। तब वे मानसिक रूप से अनुभव करने लगे कि उनका शरीर गर्म हो रहा है। इसके साथ ही ध्यान करने लगे। पहमहंस जी ने खुद ही लिखा कि वे जल्दी ही टोस्ट की तरह गर्म हो गए थे। यह प्रत्याहार की क्रिया का प्रतिफल था। वैसे, इस मामले में सूर्यभेदी प्राणायाम भी बड़े काम का होता है। विपरीत परिस्थितियों में भय न रहे, इसके लिए साधु-संन्यासी मुख्यत: शशंकासन अनिवार्य रूप से करते हैं। इससे एड्रिनल स्राव नियंत्रित रहता है, जिसके कारण भय का भूत पीछा नहीं करता।
उपरोक्त तमाम उदाहरणों से समझा जा सकता है कि नागा संन्यासियों से लेकर विभिन्न अखाड़ों से जुड़े अन्य साधु-संन्यासी तक किस तरह कठिन तपस्या करके मानवता की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। संन्यास मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि परोपकार का मार्ग है। आखाड़ों से जुड़े संन्यासी इस कसौटी पर खरे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)