दुनिया का विशालतम आध्यात्मिक संगम यानी प्रयागराज महाकुंभ अब समापन की ओर है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से कहना होगा यह महाकुंभ आत्मा की अनंत शक्ति का प्रकटीकरण है। विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और देशों के लोगों का एक मंच आ जाने से भारत की इस मान्यता को बल मिला कि वह अपनी प्राचीन परंपराओं को आधुनिकता के साथ जोड़कर एक समृद्ध और शक्तिशाली समाज का निर्माण करने में सक्षम है। भारत की आध्यात्मिक शक्ति का असर देखिए कि महाकुंभ में करोड़ों भारतीयों के अलावा बड़ी संख्या में विदेशी श्रद्धालुओं ने भी हिस्सा लिया। 82 देशों के मीडिया ने इसे कवर करके मानव इतिहास की इस अद्वितीय घटना की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
कुछ लोगों को महाकुंभ की प्रशंसा खटकी भी। उनका मत था कि महाकुंभ में स्नान करने की क्या जरूरत? मन चंगा तो कठौती में गंगा। किसी ने कहा कि गंगा-स्नान से पाप नहीं धुलता आदि आदि। इन सवालों के जवाब वैदिक ग्रंथों में मिलते हैं। उन्हें संत-महात्मा भी बताते रहे हैं। वैदिक दर्शन में जल को पांच महाभूतों में से एक माना गया है, जो शुद्धिकरण और जीवन का प्रतीक है। ऋग्वेद (10.9.1-3) में जल को “सर्वं विश्वमापः” (सब कुछ जल से उत्पन्न होता है) कहकर उसकी पवित्रता और शक्ति का वर्णन किया गया है। प्रयागराज महाकुंभ में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम का जल विशेष रूप से पवित्र माना जाता है, क्योंकि यहाँ की भौगोलिक और आध्यात्मिक ऊर्जा इसे दिव्य शक्ति प्रदान करती है। इस जल में स्नान करने से शरीर और मन का शुद्धिकरण होता है, जो पापों से मुक्ति का आधार बनता है।
संगम में प्रदूषण को लेकर भी हाय-तौबा मची हुई है। एनजीटी ने महाकुंभ के दौरान संगम के जल की गुणवत्ता पर सवाल उठाया है। वैसे, सन् 2013 के कुंभ के दौरान भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर ने भी गंगा जल की गुणवत्ता पर बड़ा सवाल खड़ा किया था। राजनीति तब भी हुई थी और राजनीति अब भी हो रही है। फर्क इतना है कि तब अखिलेश यादव की सरकार थी और अब योगी आदित्यनाथ की सरकार है। सरकार अपना बचाव करती ही हैं। इसलिए दोनों ही सरकारों ने अपना बचाव किया। योगी आदित्यनाथ एक कदम आगे बढ़कर कह रहे हैं कि संगम का जल न केवल स्नान के लिए, बल्कि पीने (आचमन) के लिए भी उपयुक्त है।
पर, इन सबके इत्तर जरा सोचिए, जिस आयोजन से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हो, वहां कोई भी सरकार पर्यावरणीय या यातायात संबंधी समस्याओं के आधार पर महाकुंभ में डुबकी लगाने से वंचित करने की बात सोच भी सकती है? आस्था ही है कि लोग हज़ारों मील पैदल चलते हुए, सिर पर सामान लादे, कठोर ठंड सहते हुए, थकान के बावजूद बिना आराम किए आगे बढ़ते रहते हैं। यह मानकर कि लाखों-करोड़ों लोगों का संगम है तो प्रदूषण भी होगा और अन्य समस्याएं भी होंगी। इसलिए, हमने देखा भी कि किस तरह आस्था की लहरों में सुविधा-असुविधा या स्वच्छता-प्रदूषण की तमाम बातें धुल गईं।
वैसे, प्रकृति की लीली न्यारी है। चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी के शोध से पता चला है कि गंगा के पानी में बीस से अधिक प्रकार के बैक्टीरियोफेज हैं, जो बैक्टीरिया मारने का सक्षम वायरस हैं। तभी घरों में रखा गंगाजल भी लंबे समय तक खराब नहीं होता। बीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक संत महर्षि महेश योगी तो भारत में रहें या विदेश में, सदैव गंगाजल ही पीते थे। उनके लिए गंगाजल का व्यापक प्रबंध किया जाता था। महर्षि जी की जीवनी में इस बात का उल्लेख है।
कुंभ हो या महाकुंभ, लोगों की आस्था किसी अंधविश्वास के कारण नहीं है। बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि जो लोग धन, यश और संतान की इच्छा रखते हैं, उन्हें अपने कर्मों का मंथन करना चाहिए। आदि शंकराचार्य ने भी इस उपनिषद पर अपने भाष्य में इसकी पुष्टि की है। उन्होंने कहा कि मनुष्य का संपूर्ण जीवन एक मंथन प्रक्रिया है, जिसमें हमेशा यह संभावना बनी रहती है कि वह अपने निम्नतर मन द्वारा निगल लिया जाए। इच्छाओं की पूर्ति और आत्म विकास के लिए कर्मों का मंथन करना आवश्यक है।
बृहदारण्यक उपनिषद में यह भी स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जब सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करता है और शुक्ल पक्ष होता है, तब वह समय कुंभ के लिए उपयुक्त होता है। प्रयागराज में कुंभ मेला ऐसी खगोलीय घटना के दौरान ही आयोजित किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि कुंभ न केवल बाह्य रूप से, बल्कि आंतरिक रूप से भी एक मंथन की प्रक्रिया का प्रतीक है।
यदि महाकुंभ या कुंभ में मानसिक और आध्यात्मिक साधना का गूढ़ रहस्य न छिपा होता, तो यह कथा इतिहास के पन्नों में खो जाती। पर, भारतीय मनीषा की अद्वितीय दृष्टि का ही प्रमाण है कि गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान सरल और रोचक कथाओं के माध्यम से पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित है। यौगिक दृष्टिकोण से गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम केवल भौतिक नदियों का मिलन नहीं, बल्कि मानव शरीर में नाड़ियों—इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना—के संतुलन का प्रतीक है। आध्यात्मिक रूप से यह वह बिंदु है, जहां चेतना जागृत होती है। इसलिए, महाकुंभ में स्नान इस आंतरिक संगम को साकार करने की प्रक्रिया है, जहां भक्त अपने मन, शरीर और आत्मा को शुद्ध करते हैं।
विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संस्थापक महासमाधिलीन परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि कुंभ आत्म साधना, प्राण नियंत्रण और आंतरिक ऊर्जा के संतुलन का पर्व है। प्राचीन यौगिक परंपराओं में कुंभ को ‘अमृत प्राप्ति’ का प्रतीक माना गया है, जहां अमृत का अर्थ आध्यात्मिक जागरूकता और चेतना की उच्च अवस्था से है। यौगिक दृष्टिकोण से कुंभ या महाकुंभ योग विद्या में ‘कुंभक’ (श्वास को रोकना) की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है, जो प्राण शक्ति को नियंत्रित करने और उच्च मानसिक स्थिति प्राप्त करने में सहायक होता है।
खैर, महाकुंभ की लोकप्रियता, उसकी सफलता से नया कीर्तिमान स्थापित हुआ है। ऐसा लगा मानो संगम के तट पर जुटे संतों के मंत्र ब्रह्मांड की सूक्ष्म पुकार बनकर लोगों के अंतर्मन में छा गए और वे आंतरिक प्रेरणा के कारण तमाम विध्न-बाधाओं के बावजूद महाकुंभ में खिंचे चले गए। संगम का संनाद यानी संगम से उठने वाली शाश्वत और पवित्र गूंज अमिट छाप छोड़ गया, जो भावी पीढ़ियों को भी प्रेरित करता रहेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व उषाकाल डॉट कॉम के संपादक हैं।)