किशोर कुमार //
भगवान शिव को सर्वाधिक प्रिय सावन महीने में आदियोगी शिव-पार्वती संवाद, एक मछली का पुनर्जन्म मत्स्येंद्रनाथ के रूप में होना और हठयोग व नाथ संप्रदाय की चर्चा किसी न किसी रूप में हो ही जाती है। शिव संहित से लेकर शैवागमों तक में उल्लेख है कि भगवान शिव ने सबसे पहले माता पार्वती को ही योग की शिक्षा दी थी, जिनमें हठयोग से लेकर ध्यान तक की यौगिक विधियां शामिल हैं। यहां बात हठयोग की होगी। पर, पहले शिव-पार्वती संवाद, जो युवापीढ़ी के लिए अमृत समान है।
कथा है कि भगवान शिव पार्वती जी को बतला रहे थे कि मानव में चाहे तो अमरत्व प्राप्त कर सकता है। माता पार्वती बोल उठीं, कैसे? क्या आदमी इस देह में रहकर अमरत्व प्राप्त कर सकता है? अपने प्रत्युत्तर में आदियोगी ने कहा, ‘मानव का शरीर ऐसा है कि इसमें अमृत भी है और विष भी। अमृत का जो स्रोत बिन्दु चक्र है, जिससे अमृत टपकते रहता है। बावजूद शरीर रूपांतरित नहीं होता। इसकी वजह यह है कि अमृत जठराग्नि में पहुंच कर भस्म हो जाता है। यदि किसी को अमरत्व प्राप्त करना है तो यौगिक बल का सहारा लेना होता है। ताकि अमृत भस्म न होने पाए।‘ यह कैसे होगा? भगवान शिव कहते हैं, ‘जिह्वा को मोड़ कर तालु से लगा लो। तब अमृत सीधे जठराग्नि में नहीं जाएगा, बल्कि जिह्वा पर टपकेगा।‘ इस यौगिक क्रिया को ही हम सब खेचरी मुद्रा के रूप में जानते हैं। इसके बाद तो माता पार्वती शरीर और मन को लेकर लगातार जिज्ञासा प्रकट करती जाती हैं और भगवान शिव उत्तर देते जाते हैं। इसे ही योग की प्रथम शिक्षा मानी गई है।
पर इस कथा में एक ट्विस्ट है। भगवान शिव चाहते थे कि जब वह ध्यानावस्था में बोलते जाएंगे तो माता पर्वती हॉ,हॉ बोलती जाएं। इससे पता चलेगा कि वह उनकी बातें ग्रहण कर रही हैं। पर होता यह है कि कई दिनों के संवाद-क्रम में माता पार्वती को नींद आ जाती है। चूंकि यह संवाद नदी तट पर चल रहा था तो एक मछली संवाद सुन रही होती है। माता पार्वती नींद आते ही हाँ, हाँ कहना बंद करती हैं तो मछली जल से ही हाँ, हाँ बोलना शुरू कर देती है। सिद्ध योगी इसे भगवान की लीला मानते हैं। ताकि जगत् का कल्याण हो सके।
खैर, जब माता पार्वती की तंद्रा टूटती है और वह कहती हैं कि तंद्रा के कारण पूरी बात सुन नहीं पाईं तो भगवान शिव कहते हैं, ‘तब कौन पूरे समय हाँ, हाँ कहता रहा!’ तभी माता पार्वती की नजर एक मछली पर जाती है और वह बोल उठती हैं, ‘इस मछली ने सम्पूर्ण योगशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया है।’ भगवान शिव पहले तो क्रोधित होते हैं कि मछली ने छिपकर योग विद्या हासिल की। फिर उस मछली को ही मनुष्य का रूप देकर संसार में भेजने का निश्चय करते हैं। ताकि वह जगत्-कल्याण हेतु योग विद्या का प्रचार-प्रसार करे। कथा है कि वही मछली अगले जन्म में मत्स्येन्द्रनाथ के रूप में मशहूर हुई, जिसने हठयोग का प्रचार किया। कालांतर में उनके पट्शिष्य गोरखनाथ के कारण नाथ संप्रदाय दुनिया भर में छा गया। इसलिए, नाथों को सिद्ध हठ योगी माना जाता है।
हम जानते हैं कि अनंतकाल से वैदिक ज्ञान श्रुति और स्मृति के आधार पर ही विस्तार पाता गया। इस क्रम में मूल विद्याओं में कई विसंगतियां भी आईं। कई बार युग की मांग के अनुरूप योग विद्या में तब्दीली करके प्रचारित करना पड़ा। इस क्रम में एक ऐसा भी समय आया, जब हठयोग को बलात् योग समझा जाने लगा और भ्रांत धारणाएं फैलाई गईं। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती योग विद्या के प्रचार के बुंदेलखंड में थे। हठयोग की शिक्षा ही दे रहे थे। इसी बीच उनकी नजर एक ऐसे व्यक्ति पर गई, जो अपने आसपास के लोगों को बता रहा था, ‘हठयोग बड़ी विचित्र चीज है। हमारे बुजुर्गों ने बताया है कि उसमें आँतों को निकालकर धोया जाता है।’ तब स्वामी जी ने उस आदमी को पास बुलाया और समझाया कि हठयोग के बारे में यह गलत धारणा है। इसमें सच्चाई नहीं है। असल में, आँतों को निकालकर धोया नहीं जाता, बल्कि एक कपड़े को गले के अंदर प्रविष्ट कराकर अंदर के कफ-पित्त को निकाला जाता है।
प्राचीन हठयोग का हठ शब्द दो अक्षरों से बना है, ह और ठ। बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती बताते हैं कि हठयोग का मतलब है शरीर के अन्दर दो प्रणालियों के बीच संतुलित सम्बन्ध स्थापित होना। इन प्रणालियों में एक है प्राण, दूसरा है मन। ये शरीर के मूल आधार हैं। इन्हें चन्द्र और सूर्य, गंगा और यमुना, इड़ा नाड़ी और पिंगला नाड़ी, चित्त शक्ति और प्राणशक्ति भी कहते हैं। जब इन दोनों में असंतुलन होता है तो बीमारियाँ होती हैं, जब ये दोनों संतुलित हो जाते हैं तो बीमारियां दूर हो जाती हैं। इसलिए योग शास्त्र में इसे बीमारियों को दूर करने का एक मार्ग कहा गया है।
परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती द्वारा लिखित “योग दर्शन” के मुताबिक, हठयोग का अभ्यास मूलत: छह समूहों में ही विभक्त रहा है। वे हैं – नेति, धौति, बस्ति, कपालभाति और त्राटक। इसे षट्कर्म कहा गया। कोरोना काल में देश-विदेश के बड़ी संख्या में लोग षट्कर्म के चमत्कारी लाभों से लाभान्वित हुए थे। पट्कर्मों में नेति को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की भाषा में आंख, नाक और गले का चिकित्सक कह सकते हैं। धौति से कफ और पित्त का निष्कासन होता है। बस्ती क्रिया एनिमा की तरह है। इससे पेट संबंधी बीमारियां खत्म होती हैं। नौलि पाचन-क्रिया मजबूत बनाती है। कपालभाति से स्नायु ग्रंथियों की गड़बड़ी दूर होती है, जिससे आँखों की कमजोरी और चक्कर आना बंद होता है। त्राटक से मन की चंचलता दूर होती है। इसलिए, जब हम हठयोग का अभ्यास करते हैं तो अन्नमय कोष या शरीर, प्राणमय कोष या ऊर्जा, मनोमय कोष या विचलित मन के सभी असंतुलन और अवरोध दूर हो जाते हैं। परमहंस जी कहते थे कि हठयोग का अभ्यास किशोरावस्था से शुरू होनी चाहिए।
शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर हम जानते हैं कि आदियोगी को सर्वाधिक प्रिय सावन महीना है। इसलिए, सावन को ही उनके द्वारा बताई गई योग विद्या को अमल में लाने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त मान लेने में कोई हर्ज नहीं।
Writer of this article is spiritual journalist & editor of ushakaal.com