बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती खुशी पर सर्वाधिक जोर देते हुए कहते हैं कि योग-मार्ग पर आगे बढ़ने से पहले खुश रहने की कला अनिवार्य रूप से विकसित कर लेनी चाहिए। इस बात को चुनौती के रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए। वे खुशी की महत्ता बताने के लिए पौराणिक कथा हवाला देते हैं – “बहुत हज़ारों वर्ष पहले, देवी पार्वती ने अपने प्रिय और गुरु भगवान शिव से पूछा, इस सृष्टि में, इस प्रकट जगत में, इस संसार और प्रकृति में, सब कुछ क्षणिक है, कुछ भी स्थायी नहीं है। यहाँ तो इतना दुःख, पीड़ा, चिंता और हताशा है। ऐसे में कोई क्या करे? शिव जी ने उत्तर दिया, ऐसे तरीके और साधन हैं, जिनसे मनुष्य पीड़ा और दुःख को समझ सकता है, उनके कारणों को पहचान सकता है और उन्हें पार कर सकता है। परंतु, किसी भी दुःख या पीड़ा से निपटने का सबसे श्रेष्ठ उपाय है – खुश रहना। इसलिए, हमेशा खुश रहो। इस प्रकार, “खुशी” पहला यम बन गया।”
स्वामी जी की बातों का गूढार्थ समझिए। हम सभी खुश रहना चाहते हैं। लेकिन क्या कभी सोचा कि खुशी आती कहाँ से है? क्या यह बाहर की दुनिया से आती है? किसी वस्तु से? किसी रिश्ते से? किसी उपलब्धि से?नहीं… खुशी बाहर से नहीं, वह हमारे भीतर से जन्म लेती है। और सबसे बड़ी बात यह है कि खुशी एक भावना नहीं, एक ‘चुनाव’ है!

तो सोचिए, यदि हम रोज़ सुबह यह तय करें कि “आज मन में नकारात्मक विचार नहीं आने देना है और वैसे तमाम काम करने हैं, जिनसे खुशी मिलती हैं। जैसे, आज आभार व्यक्त करना है, आज अकारण ही मुस्कुराना है आदि आदि। तो कुछ ही समय में हमारा मस्तिष्क हमें वह भावना स्वतः प्रदान करने लगेगा। इसे प्लेसिबो इफेक्ट भी कह सकते हैं। जब हम मान लेते हैं कि आज खुश रहने वाले हैं या मुस्कुराने का नाटक ही करने लगते हैं तो डोपामिन, सेरोटोनिन जैसे खुशी के रसायन उत्पन्न होने लगते हैं। यानी जिस बात को सच मान लिया, भावना के स्तर पर वही सच्चाई बन जाती है।इसलिए कहा जाता है कि खुशी कोई संयोग नहीं है। वह हमारे हर दिन का, हर क्षण का चुनाव है।