उन्नीसवीं सदी में भक्ति परंपरा के महान संत स्वामी रामानंद में भक्तिभाव रखने वाले व्यापारी पिपा समुद्री मार्ग से यात्रा पर थे। अचानक, आसमान काला पड़ गया। बादल गरजने लगे, और समुद्र में भयंकर तूफान उठ खड़ा हुआ। लहरें ऐसी उछल रही थीं, मानो जहाज को निगल लेना चाहती हों। तभी पिपा जी का ध्यान गुरू और अराध्य श्रीराम पर गया। उनकी आर्त पुकार का असर हुआ कि वो तूफान, जो अभी-अभी सब कुछ उजाड़ने को तैयार था, धीरे-धीरे शांत हो गया। लहरें थम गईं और बादल छट गए। जहाज सुरक्षित किनारे पर पहुँच गया। भक्तमाल की टीका में प्रियादास जी इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि चाहे कितना ही बड़ा संकट क्यों न आए, अगर हम अपने गुरु और भगवान पर भरोसा रखें, तो वो हमें हर मुसीबत से निकाल लेते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता (7.16) में कहा गया है, “चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥” यानी भक्त चार प्रकार के होते हैं। उनमें एक है आर्त भक्त। ऐसा भक्त दु:ख स्वंय को ईश्वर के हवाले कर देता है तो भगवान रक्षार्थ प्रकट हो जाते हैं। महाभारत की द्रौपदी के मामले में भी ऐसा ही हुआ था। श्रीरामचरितमानस में अहिल्या की भक्ति को भी इसी श्रेणी में रखा गया है। पर, ईश्वरीय विधान का यह एक पहलू है। दूसरा पहलू वह है, जिसका उल्लेख श्रीरामचरितमानस में है – “जाकि राखे साइयां, मारि न सकै कोय। बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय।“ गुजरात के अहमदाबाद में हुए विमान दुर्घटना के दौरान यह चौपाई चरितार्थ हो गई। विमान यात्री विश्वास कुमार रमेश भीषण दुर्घटना के बावजूद मौत के मुंह से निकल गए।
अहमदाबाद की विमान दुर्घटना हमें जीवन की अनिश्चितता और विधाता की सर्वोच्चता का स्मरण कराती है। जीवन और मृत्यु मनुष्य के वश में नहीं हैं, ये प्राकृतिक और ईश्वरीय नियमों के अधीन हैं। यह सत्य भारतीय आध्यात्मिक दर्शन का मूल है, जो श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्भगवद्गीता और वैदिक ग्रंथों में बार-बार प्रकट होता है। इन ग्रंथों में जीवन और मृत्यु को ईश्वरीय इच्छा, कर्म और प्राकृतिक नियमों के अधीन बताया गया है। तभी तो कुछ पल पहले तक विमान की हँसी-ठिठोली अचनाक करुण-क्रंदन में बदल गई और चंद सेकेंड के भीतर वह भी शांत हो गया। दुर्घटना इतनी भयावह थी कि आकाश मौन हो गया है। देश गम में डूब गया। स्वजनों का शोक गहरा होता गया।
जो क्षति हुई, उसकी भरपाई तो संभव नहीं। पर, वैदिक दर्शन हमें शोक के सागर में डूबने से बचने का मार्ग दिखाते हैं। श्रीरामचरितमानस का वह प्रसंग याद कीजिए, जब श्रीराम का वनवास हो चुका था और पिता दशरथ परलोक गमन कर चुके थे, तब भारत की मनोदशा कैसी थी। वे शोकग्रस्त और किंकर्तव्यविमूढ़ थे। यानी महाभारत के लगभग अर्जुन जैसी स्थिति। तब वशिष्ठ मुनि को स्थिति संभालने के लिए आगे आना पड़ता है। वे भरत से कहते हैं, “हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, और अपयश, सभी विधाता के अधीन हैं। राजा दशरथ का परलोक गमन और श्रीराम का वनवास विधि का विधान है, जिसे कोई टाल नहीं सकता था। शोक करना स्वाभाविक है, परंतु धैर्य धारण करके उससे उबरने की कोशिश होनी चाहिए। शोक में डूबकर मनुष्य अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाता है।“ इस उपदेश का भरत पर असर हुआ और वे भावनाओं के आवेग में बहने से बच पाए थे। श्रीकृष्ण भी आत्मा की अमरता बताते हुए यही कहते हैं कि मृत्यु ईश्वरीय नियमों के अधीन है- “न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।”
फिर दूसरों की कौन कहे, विधि के इस विधान से खुद श्रीकृष्ण भी कहां बच पाए थे। वे तो स्वयं ही विष्णु भगवान के अवतार थे। लेकिन जब यदुवंश का नाश करीब था तो एक शिकारी की गलती से तीर उनके पैर में लगा और लीला समाप्त हो गई थी। गुरूजन इसकी व्याख्या करते हए कहते हैं कि श्रीकृष्ण की मृत्यु ईश्वरीय लीला का हिस्सा थी, और शिकारी का तीर केवल उसका भौतिक साधन था। यह घटना यदुवंश के कर्मों और नियति के फलस्वरूप हुई। श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता में इस बात को और भी स्पष्ट किया है, “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः” (15.7), अर्थात् जीव ईश्वर का अंश हैं और उनकी योजना के अधीन हैं। इसलिए, संत कबीर ने मनुष्य को साक्षी भाव अपनाने की शिक्षा दी है। वे रामचरितमानस की चौपाई “हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, और अपयश विधि हाथ” चौपाई की व्याख्या करते हुए कहते कि मनुष्य को सांसारिक घटनाओं को केवल दृष्टा की तरह देखना चाहिए। जब सब कुछ विधाता के हाथ में है, तो मनुष्य परमात्मा का स्मरण करने के सिवा और कर भी क्या सकता है।
इन कथाओं को गुजरात विमान दुर्घटना के संदर्भ में देखें, तो मशीनी खराबी या मानवीय त्रुटि भौतिक कारण थी। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, यह केवल ईश्वरीय नियम को लागू करने का साधन थीं, और मृत्यु नियति का हिस्सा थी। यह हमें सिखाता है कि ऐसी घटनाओं में भौतिक कारणों (जैसे विमानन सुरक्षा) को दुरुस्त तो करना ही चाहिए। साथ ही आध्यात्मिक स्तर पर जीवन की अनित्यता को स्वीकार करना चाहिए। ये सारे उपदेश हमें भक्ति और समर्पण की ओर ले जाते हैं। इसलिए कि शोक के क्षणों में प्रभु स्मरण का आलंबन वह रस्सी है, जो हमें इस दु:ख से उबार सकती है। इस त्रासदी में मृतकों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, हम प्रार्थना करते हैं कि उनके परिवारों को यह दु:ख सहने की शक्ति मिले।
पहलगाम में आतंकी हमलों का घाव अभी ताजा ही था कि विमान हादसे ने झकझोर कर रख दिया। इन हृदयविदारक घटनाओं से हर भारतीय मर्माहत है, विचलित है। ऐसे में, अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर अब ‘योगा फॉर बन अर्थ, वन हेल्थ’ से आगे की बात होनी चाहिए। जीवन की अनिश्चितता और विधाता की सर्वोच्चता से हम अवगत हैं। ऐसी घड़ी में “योग: चित्त वृत्ति निरोध:” जैसे यौगिक सूत्र ही काम आते हैं। सुखद है कि विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय अब योग का अभिनव प्रयोग करते हुए साधकों की मानसिक शांति और आध्यात्मिक उत्थान को प्रमुखता दे रहा है, जो सर्वत्र अनुकरणीय है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)