दैवी शक्तियों की कथाएं सांकेतिक होती हैं। भारतीय संस्कृति में वैदिककालीन या उसके पूर्व की जितनी भी घटनाएं हैं, उनकी अभिव्यक्ति कथाओं और प्रतीकों के माध्यम से की गईं। उन कथाओं का सार इसमें है कि उनसे मिले संकेतों के आधार पर हम अपना जीवन किस तरह बेहतर बना पाते हैं। दुर्गासप्तसती की कथाओं से हमें पता चलता है कि माता रानी की दिव्य शक्ति से राक्षसी शक्तियों का संहार होता गया था। सृष्टि के आरंभिक दिनों की ये कथाएं हमारे मानस में रची-बसी हैं तो अकारण ही नहीं है। उन कथाओं के गहरे संदेश हैं। हमारी क्रमिक साधनाओं के फलस्वरुप उन पर पड़े आवरण हटते हैं, तो हमारा जीवन रुपांतरित होता है। हम जान जाते हैं कि हमारे लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आलस्य, भय, ईर्ष्या, और अन्य आसक्ति सहित दस विकार ही रावण हैं, जिन्हें दैवी कृपा से नाश करना है।
इसलिए संत-महात्मा चेतावनी देते है कि देहभाव में ही आसक्त मत रहो। आसन-प्राणायाम तक ही सीमित मत रहो। जीवन में तीन प्रकार के दु:ख हैं – आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक। ये तीनों दु:ख जीवन के हिस्सा हैं, लेकिन ये आत्मा को छू नहीं पातें। योग की शक्ति से इन दु:खों को कम किया जा सकता है, और ईश्वर की कृपा से उनसे पूरी तरह मुक्त हुआ जा सकता है। इस बात को जरा विस्तार से समझिए। आध्यात्मिक स्वयं के भीतर से उत्पन्न दु:ख है, जो हमारे अज्ञान से जन्म लेते हैं और शरीर और मन के जरिए प्रकट होते हैं। जैसे, बीमारी, चिंता, डर, गुस्सा, या इच्छाओं का बोझ आदि। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य स्वयं का मित्र और शत्रु स्वयं है। जब मन असंयमित होता है, तो वही दुःख का कारण बनता है। धृतराष्ट्र का असली दु:ख नेत्रहीन होना नहीं था, बल्कि पुत्रमोह था। धर्म का ज्ञान होते हुए भी मोहवश अधर्म का साथ दिया, और यही दु:ख का कारण बना। यही है आध्यात्मिक दु:ख। इसलिए, पातञ्जलि योगसूत्र में “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” का सूत्र देकर प्राणायाम, त्राटक आदि किसी भी यौगिक विधि से मन स्थिर करने की सलाह दी गई है।
आधिभौतिक दु:ख बाह्य प्राणियों से होता है। रावण ने सीता माता का अपहरण किया तो यह सीता माता के लिए शारीरिक और मानसिक कष्ट का कारण बना। इसी तरह हनुमान जी सीता माता की खोज में लंका गए तो राक्षसों ने उनकी पूंछ में आग लगा दी। रावण के ये छल – बल आधिभौतिक पीड़ा की निशानी हैं। पशुजन्य कष्ट भी आधिभौतिक दु:ख है। इसलिए अथर्ववेद में “मृगव्याधेभ्यः पिपर्तु” जैसे रक्षा-मंत्र के जरिए जंगली पशुओं और हिंसक प्राणियों से रक्षा की प्रार्थना की गई है। योगी इन्हें सापेक्षिक और कर्मों का फल मानते हैं और सुझाव देते हैं कि कर्मयोग के जरिए बाहरी दुनिया में संतुलन बनाकर इनसे मुक्ति संभव है। जैसे, पतञ्जलि योगसूत्र के प्रथम यम अहिंसा का सार भी तो यही है।
प्राकृतिक आपदाएँ जैसे बाढ़, सूखा, भूकंप, तूफान, बिजली गिरना आदि और अन्य असामान्य परिस्थितियां आधिदैविक दु:ख हैं। ईश्वरीय लीला के इन परिणामों को हम देख-भुगत तो सकते हैं, लेकिन काबू नहीं कर सकतें। जैसे, राजा दशरथ ने अनजाने में श्रवणकुमार को वाण से मार दिया था। इससे विचलित उसके माता-पिता ने राजा दशरथ को श्राप दिया कि जैसे हमने पुत्र वियोग का दुःख झेला है, वैसे ही तुम भी मरते समय पुत्र-वियोग सहोगे। श्रीराम के वनवास के रुप में यह फलित हो गया था। यह श्राप किसी मनुष्य की साधारण इच्छा से नहीं, बल्कि दैवी विधान से हुआ माना गया, जो आधिदैविक दुःख का प्रमाण था। इसलिए, योगी शिक्षा देते हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, और दैवीय इच्छा को स्वीकार करके, उनकी आराधना करके ही ऐसी परिस्थितियों से पार पाया जा सकता है। श्रीमद्भगवतगीता के 11वें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि ईश्वर की शक्ति कृपा से ही मिलती है। जो भक्त पूर्ण श्रद्धा से ईश्वर का आश्रय लेता है, उसका दु:ख हर लिया जाता है।
नवरात्रि के दौरान दुर्गासप्तशती का पाठ करके देवी दुर्गा के नौ रुपों का क्रमश: आवाहन करते हुए उनकी आराधना की जा रही है। आधुनिक युग के लिहाज से उनका आध्यात्मिक विश्लेषण करें तो नवदुर्गा के नौ रूप मानव शरीर के चक्रों के माध्यम से आध्यात्मिक यात्रा को दर्शाते हैं। प्रत्येक देवी एक चक्र को जागृत करती है, जो भक्त को आध्यात्मिक (मन-शरीर की पीड़ा), आधिभौतिक (बाहरी जीवों से दुख), और आधिदैविक (प्राकृतिक आपदाओं) दुखों से मुक्त करती है। आप नवरात्रों के दौरान देवी दुर्गा द्वारा देवताओं की रक्षा के लिए राक्षसों के संहार की कथाओं पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि उनमें कर्मयोग का गहरा संदेश है। कुंडलिनी तंत्र में भी कहा गया है कि कुंडलिनी जागरण के लिए कर्मयोग भले पर्याप्त न हो। पर इसके बिना कुंडलिनी थोड़ा भी आगे नहीं बढ़ सकती। दूसरा संदेश है कि कर्मयोग या कोई अन्य सिद्धियां भी दैवी शक्ति की कृपा से ही फलित होती हैं। तभी श्रीराम भी रावण से युद्ध में तभी सफल हुए थे, जब उन पर देवी की कृपा हो गई थी।
कथा तो पता ही होगा। श्रीराम की सेना पर रावण की सेना भारी पड़ रही थी। श्रीराम को विस्मय हुआ। ध्यान में बैठें तो उन्हें दिख गया कि माता की कृपा से रावण जैसा क्रूर राक्षस रणक्षेत्र में अटल है। श्रीराम ने भी देवी की कृपा के लिए नौ दिनों की साधना की। अंतिम दिन देवी का आशीर्वाद मिल गया। दशनामी संन्यास परंपरा के प्रखर संन्यासी और चिन्मय मिशन के संस्थापक रहे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती के भाष्य के मुताबिक, रावण विजयदशमी के दिन नहीं, बल्कि दीपावली से एक दिन पहले मारा गया था। नवमी को माता से आशीर्वाद मिलने के बाद दशमी से श्रीराम का विजय अभियान शुरु हुआ था और उन्नीसवें दिन रावण मारा गया था। उसी दिन श्रीराम-जानकी-लक्ष्मण सभी लंका से कूच कर गए थे। बीसवें दिन अधोध्या पहुंचे तो दिवाली मनाई गई थी।
मैने पहले ही कहा कि आधुनिक युग में पौराणिक कथाओं में उलझने के बजाय उनके आध्यात्मिक संदेशों को आत्मसात करने का यत्न करना चाहिए। आधुनिक युग में रावण बाहर नहीं, हमारे भीतर ही है। योग और प्रार्थना की शक्ति से उसका ही संहार करना है। जीवन रुपांतरित होगा। नवरात्रि, दुर्गापूजा और दशहरा अर्थपूर्ण हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)