संत मत है कि घटशुद्धि से ही घटरूपी शरीर हठयोग साधना के योग्य होता है। घट की शुद्धि बिना यह कच्चे घड़े के समान है। यह लेख उसी घटशुद्धि के लिए षट्कर्म रुपी योग विद्या का विज्ञान बताने के लिए है। लेकिन पहले नाथपंथ के सिद्ध योगी चौरंगीनाथ से जुड़े एक प्रसंग पर गौर फरमाइए। चौरंगीनाथ को तमाम कोशिशों के बावजूद योग साधनाओं में सफलता नहीं मिल पा रही थी। तब गुरु को अपनी व्यथा सुनाई। कौन थे गुरु? मत्स्येंद्रनाथ? ज्ञानेश्वरी जैसे ग्रंथ में मत्स्येंद्रनाथ के बाद तथा गोरखनाथ के पहले गुरु-शिष्य परंपरा में चौरंगीनाथ का नाम आता है। दूसरी तरफ कई जगहों पर उन्हें गोरखनाथ शिष्य बताया गया है। वैसे, इस विवाद का कोई सार नहीं। कथा का सार समझिए। गुरु ने पूछा, “तुमने शरीर की शुद्धि के लिए षट्कर्म का अभ्यास किया था?” चौरंगीनाथ चौंक गए। इसलिए कि तब वे पूरण भगत थे और उन्हें षट्कर्म का ज्ञान नहीं था।

गुरु ने उन्हें उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई महर्षि भृगु से जुड़ी एक कथा सुना दी। कहा, “महर्षि भृगु की हालत भी तुम्हारे जैसी ही थी। योग साधना में सफलता नहीं मिल पा रही थी। काफी मंथन के बाद बात समझ में आई कि शरीर अशुद्ध होने के कारण बाधाएं आ रही हैं। तब उन्होंने दिव्य ऋषियों से शुद्धि की विद्या सीखी, जिसे षट्कर्म के नाम से जाना गया। इस तरह महर्षि भृगु की बाधाएं दूर हो गई थीं।” गुरु की इस प्रेरणा के बाद ही पूरण भगत की साधनाओं में छलांग लगी और चौरंगीनाथ बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
आयुर्वेद के मुताबिक, शरीर में तीन दोष हैं होते हैं – कफ, पित्त, और वात। इसमें असंतुलन होते ही शरीर बीमार हो जाता है। ऐसे में योग साधना में सफलता मिलने का तो सवाल ही नहीं। योग विद्या में षट्कर्म को इस मर्ज की दवा बताया गया है। धौती, वस्ति, नेति, नौलि, कपालभाति और त्राटक इसकी छह विशिष्ट क्रियाएं हैं। 15वीं शताब्दी के योगी स्वामी स्वात्माराम ने अपनी हठयोग प्रदीपिका में और उनके बाद के योगी महर्षि घेरंड ने घेरंड संहिता में जोर देकर कहा है कि योगासन शुरू करने से पहले ही इन दोषों को दूर कर लेने से योगाभ्यासों का संपूर्ण लाभ लेना संभव हो पाता है। षट्कर्म हठयोग की प्रथम सीढ़ी या आधार है। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के अनुभवो और उनकी पहल पर किए गए वैज्ञानिक शोधों के नतीजों से पता चला कि षट्कर्म के कारण इड़ा और पिंगला नाड़ियां संतुलित होकर एकजुट होती हैं, तो सुषुम्ना नाड़ी जागृत होती है। सुषुम्ना का जागरण आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है, जो योगी को उच्चतर चेतना और समाधि की ओर ले जाता है।
षट्कर्म को थोड़ा विस्तार से समझिए। धौति पट्कर्म की पहली क्रिया, जिससे पाचन तंत्र को शुद्ध किया जाता है। आमाशय और अन्न नलिका की सफाई होती है। इससे कब्ज, अम्लता यानी एसिडिटी दूर होती है। इसे सामान्यत: कुंजल क्रिया के रुप में जाना जाता है। बस्ती क्रिया बड़ी आंत (मलाशय) की शुद्धि के लिए है। शंख प्रक्षालन इसकी प्रचलित विधि है। परमहंस् स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इसे यौगिक एनिमा कहते हैं। इसी तरह वे नेति क्रिया को ईएनटी डाक्टर कहते है। क्यों? क्योंकि नेति क्रिया से नाक, कान और गले की सफाई हो जाती है और इनमें संबंधित बीमारियां दूर ही रहती हैं। नौलि क्रिया एक उन्नत योगिक प्रक्रिया है। जिसमें पेट की मांसपेशियों को विशेष तरीके से घुमाया जाता है। इससे पेट के अंगों की मालिश होता है और पाचन शक्ति बेहतर बनाता है। आंतरिक अंगों को मजबूती मिलती है। यह प्राण ऊर्जा को संतुलित करने में भी सहायक है। कपालभाति मानसिक स्पष्टता, एकाग्रता और तनाव कम करने में सहायक है। साथ ही, फेफड़ों को मजबूत करता है और रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाता है। अंतिम है त्राटक क्रिया। इससे आंखों की रोशनी, एकाग्रता और मानसिक स्थिरता बढ़ती है। ध्यान की गहराई को बढ़ाने और मन को शांत करने में विशेष रूप से प्रभावी है।
यह सुखद है कि बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, कैवल्यधाम, लोनावाला, स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान, मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान, नई दिल्ली जैसे योग के नामचीन संस्थान अपने पाठ्यक्रमों में सदैव षट्कर्म को प्रमुखता देते रहे हैं। स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी की सूक्ष्म ऊर्जा से प्रकाशित मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान तो अक्सर षट्कर्म का बेसिक कोर्स संचालित करते रहता है और बड़े पैमाने पर कार्यशालाएं भी आयोजित करता है। इस प्रतिष्ठित संस्थान के सहयोग से ही दो महीने पहले आल इंडिया इस्टीच्यूट ऑफ आयुर्वेद के परिसर में षट्कर्म पर दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया था। संस्थान के वरीय योग चिकित्सक डॉ विनय भारती ऐसे आयोजनों में अपनी बात जिस तरह रखते हैं, उससे पता चलता है संस्थान योग की प्राचीन परंपरा को कायम रखने के लिए किस तरह सचेष्ट हैं। एक सरकारी संस्थान की ऐसी दिशा-दशा प्रशंसनीय है।
खैर, षट्कर्म की महत्ता का इससे भी पता चलता है कि योग व चिकित्सा के अनेक संस्थान वैज्ञानिक अध्ययन कर चुके हैं। बिहार रिसर्च फाउंडेशन ने परमहंस स्वामी सत्यानंद द्वारा बताई गई विधियों पर अमल करते हुए 38 व्यक्तियों पर पूर्ण शंखप्रक्षालन का अध्ययन किया था। नमकीन पानी का उपयोग करके आंतों की सफाई की गई। इस अध्ययन के परिणाम योग ग्रंथों में बताए गए परिणामों के अनुरुप थे। कई लोग सोचते हैं कि पानी में नमक की मात्रा कम करने से यह क्रिया सुरक्षित हो जाएगी। लेकिन अध्ययन के दौरानन यह धारणा गलत साबित हुई। पता चला कि नमक की अनुशंसित मात्रा वाले पानी का उपयोग करने पर केवल 15 फीसदी पानी शरीर के परिसंचरण तंत्र द्वारा अवशोषित हुआ है। वहीं, नमक की आधा मात्रा वाले पानी का उपयोग करने पर 50 फीसदी पानी अवशोषित हुआ, जो गुर्दों के लिए हानिकारक था। इसलिए कि इस पानी के शरीर से बाहर निकलने में बारह घंटे लग गए थे।
मानव शरीर एक दिव्य यंत्र, एक अद्भुत सुपरमशीन है। इसका हर अंग, हर तंतु एक सुव्यवस्थित तंत्र की तरह कार्य करता रहे, इसके लिए जरुरी है कि आवश्यकतानुसर षट्कर्म का अभ्यास किया जाए। लेकिन किसी अनुभवी हठ योगी के मार्गदर्शन में। वरना योग रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययन से स्पष्ट है कि खतरे भी कम नहीं हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेष हैं।)