बीसवीं सदी के प्रारंभ में योग और विज्ञान का समन्वय करके योग को जनोपयोगी रुप में प्रस्तुत करने वाले स्वामी कुवल्यानंद द्वारा स्थापित कैवल्यधाम, लोनावाला के शताब्दी वर्ष के मौके पर यूं तो अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जा चुके हैं। पर, “योग – सांस्कृतिक समन्वयन का एक साधन और उसका आध्यात्मिक पक्ष” विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में सांस्कृतिक सद्भाव और आध्यात्मिक विकास को बढ़ावा देने में योग की महती भूमिकाओं पर योगियों और संतों के सारगर्भित व्याख्यान लंबे समय तक याद किए जाएंगे।
वैसे तो दो दिनों के सम्मेलन में परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश के अध्यक्ष स्वामी चिदानंद सरस्वती, अहिंसा विश्व भारती के संस्थापक अध्यक्ष आचार्य लोकेश मुनि, इंस्टीट्यूट तिब्बती बौद्ध लामा और चोक्योंग पाल्गा चैरिटेबल के आध्यात्मिक वक्ता महामहिम चोक्योंग पाल्गा रिनपोछे, हिंदू धर्माचार्य सभा के अध्यक्ष स्वामी अवधेशानंद गिरि, स्वामी विवेकानन्द योग विश्वविद्यालय के उप कुलपति स्वामी आत्मप्रियानन्द, जैसे मूर्धन्य वक्ताओं के व्याख्यान हुए। पर, समापण सत्र में बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने अपने व्याख्यान में जो कुछ कहा, उसकी ही चर्चा हो जाए तो सम्मेलन की उपलब्धियों का सार समझना आसान होगा।
बात शुरु करने से पहले जानिए कि सम्मेलन में ऐसा क्या हुआ था कि श्रोता देर तक तालियां बजाते रह गए थे। दरअसल, स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने कैवल्यधाम की उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए दृढ़ता के साथ कह दिया – “संसार में दो ही योग संस्थाएं हैं, एक है कैवल्यधाम, लोनावाला और दूसरा है बिहार योग विद्यालय, मुंगेर, जिनका उद्देश्य परंपरागत योग संस्कृति को, योग विद्या को और योग विज्ञान को जीवित रखना, प्रसारित करना और इसके मूल गुणों से अपने आप को अलग नहीं करना है।“ स्वामी जी यहीं नहीं रुके एक अन्य प्रसंग में बड़ी साफगोई से कह दिया – “जब तक ये हैं, यानी योग की दोनों संस्थाएं, तब तक योग विद्या है। जिस दिन ये नहीं रहेंगी, योग को लोग विद्या के रुप में नहीं समझ पाएंगे। तब योग महज शारीरिक व्यायाम बनकर रह जाएगा। ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए….अभी बात पूरी होती, इसके पहले ही तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हॉल लंबे समय तक गूंजता रहा। खास बात यह थी कि समारोह में विभिन्न संस्थानों के गणमान्य लोग उपस्थित थे। पर तालियां बजाने में किसी ने कंजूसी की हो, ऐसा लगा नहीं।
जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि सम्मेलन का विषय “योग – सांस्कृतिक समन्वयन का एक साधन और उसका आध्यात्मिक पक्ष” था। स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस विषय पर बोलने के लिए आसन ग्रहण किया तो दार्शनिक और सैद्धांतिक बातें नहीं की। उन्होंने अपना व्याख्यान प्रारंभ ही किया इस तथ्य के साथ कि योगियों और योग साधकों के लिए योग दर्शन नहीं, व्यायाम नहीं, बल्कि विद्या है, जीवन जीने की शैली है। वे इस बात से चिंतित दिखे कि अज्ञानी लोगों ने योग को दर्शन बताते हुए इसे आसन, प्राणायाम तक सीमित कर दिया है। ध्यान के नाम पर समय की बर्बादी की जाती है। इसलिए कि केवल आंखें बंद करके बैठ जाना ध्यान नहीं होता। योग परंपरा के योगियों ने स्वस्थ तन-मन के लिए समाज को योग का अनुपम उपहार दिया। इसके पीछे उद्देश्य यही था कि तन-मन स्वस्थ रहेगा तो लोग आध्यात्मिक जीवन का अन्वेषण कर पाएंगे। किस लिए? आत्म-साक्षात्कार के लिए? नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए। जिसकी आध्यात्मिक चेतना ही विकसित नहीं है, वह भला आत्म-साक्षात्कार की बात सोच भी कैसे सकता है?
आध्यात्मिक चेतना का विकास भी आसन, प्राणायाम का अभ्यास कर लेने से संभव नहीं है। इसके लिए योग साधना की जरुरत है और साधना योग को जीवन-पद्धति बनाए बिना संभव नहीं। स्वामी जी ने पूरे व्याख्यान के दौरान योग विधियां बतलाते हुए साबित किया कि योग सांस्कृतिक समन्वयन का साधन है और आध्यात्मिक आयामों के आलोक में उसे फलीभूत किया जा सकता है। योग की व्याख्या सदैव देशकाल के लिहाज से की जाती रही है। स्वामी जी की मानें तो प्रारंभिक यम-नियम का पालन करते हुए प्रत्याहार का अभ्यास किया जना चाहिए। इसी आधार पर आगे का योगमार्ग प्रशस्त होगा और जीवन रुपांतरित हो जाएगा।पर, वे क्या अष्टांग योग के यम-नियम की बात कर रहे थे? नहीं। स्वामी जी का कहना था कि प्रसन्नता और मंत्र आधुनिक युग के लिहाज से प्रारंभिक यम-नियम हैं। जप ऐसी विधि है, जो चौबीस घंटे जलते टार्च लाइट को पंद्रह मिनट के लिए बुझा देती है। आज कार की बैट्री चार्ज करने के लिए चार्जिंग स्टेशन बनाए जा रहे हैं। भगवान ने आदमियों को चार्ज करने के लिए पहले से उपाय कर रखा है। और, प्रसन्नता ऐसी शक्ति है, जो दु:ख के वाणों से सुरक्षित रखती है। रामचरितमानस में जगह-जगह एक वाक्य आता है – बिहसि रघुराई…यानी रामजी मुस्कुराए। यह प्रसंग भी तब ही आता है, जब रामजी किसी संकट में होते हैं। तभी वे विवेकपूर्ण फैसला कर पाते हैं। इससे प्रसन्नता के महत्व को समझा जा सकता है। प्रसन्न रहने के समय में रोज पांच-पांच मिनटों का इजाफा करके इसे विकसित किया जा सकता है।
अब बात रही प्रत्याहार की तो यह है क्या और जीवन में इसकी उपयोगिता क्या है? इंद्रियों का निवर्तन ही प्रत्याहार है। यानी हम अपने मन को बाह्य ऐन्द्रिक पदार्थों से खीचकर अंतर्मुखी बनाते हैं। चंचल वृत्तियां शांत होती हैं तो जीवन में स्पष्टता आती है। अर्जुन को जैसे चिड़ियां की आंख दिखती थी, उसी तरह हमारे मन का विक्षेप भी दूर हो जाता है। यही प्रत्याहार है। इसे साधने लिए लाखों साधनों पर प्रयोग किए जाते रहे हैं। तंत्रशास्त्र में एकाग्रता के एक लाख पच्चीस हजार उपाय बतलाए गए हैं। पर, स्वामी जी के मुताबिक, हम लघुव्रत करके सजगता का विकास कर सकते हैं। जैसे, रात में बिस्तर पर जाने के बाद रोज का दिनचर्या का अवलोकन करें। यदि गुस्सा आया था तो विचार कीजिए कि फिर कभी गुस्सा आएगा तो उससे कैसे निबटेंगे। ऐसे रोज-रोज के प्रयास से सजगता विकसित होगी। फिर तो इसके लिए किसी भी योग विधि को साध लेना आसान होगा। सजगता आएगी तो साधना का आधार तैयार होगा। प्रसन्न रहने के समय में विस्तार और नियमित जप उत्प्रेरक का काम करेगा। इस तरह योग जीवन शैली का हिस्सा बन जाएगा। आध्यात्मिक चेतना का विकास होगा। जीवन रुपांतरित होगा और नई संस्कृति का निर्माण होगा। यही योग की सार्थकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)