स्वामी शिवानंद सरस्वती बीसवीं सदी के अद्भुत संत थे। यौगिक शक्तियां असीम थीं। उनका जीवन ईश्वर के नियमों के अनुरुप संचालित था। प्रेम, सेवा और दान उनका मूल मंत्र था, जो महर्षि पतंजलि से इत्तर उनके द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के महत्वपूर्ण अंग थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने जीवन के विविध आयामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया और उसे जनोपयोगी बनाकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। वे अपने शिष्यों के रोगों का वेदांत दर्शन की एक विधि से इलाज करते थे और वे ठीक भी हो जाते थे। वे एक मंत्र देते थे – “मैं अन्नमय कोष से पृथक आत्मा हूं, जो रोग की परिधि से परे है। प्रभु कृपा से मैं दिन-प्रतिदिन हर प्रकार से स्वास्थ्य लाभ कर रहा हूं।“ कहते थे कि सोते-जागते हर समय यह विचार मानसिक स्तर पर चलते रहना चाहिए। यह एक अचूक दैवी उपाय साबित होगा। ऐसा होता भी था। इस सूत्र से ऐसी बीमारियां भी ठीक हो जाती थीं, जिन्हें डाक्टर ठीक नहीं कर पा रहे थे।
स्वामी शिवानंद सरस्वती के पट्शिष्य और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि स्वामी जी न तो कभी पाश्चात्य देश गए औऱ न ही प्राच्य देश। पर उनकी अद्भुत यौगिक शक्ति का ही कमाल है कि सर्वत्र छा गए। स्वामी शिवानन्द जी का हृदय प्राणी मात्र के लिए प्रेम और करुणा से पूरित था। वे बड़े सरल व्यक्ति थे। लोग उनको पैसा देते थे, पर उनके पास पैसा रखने के लिए डब्बा भी नहीं था। पांच रुपए कहीं से आता तो खर्च करो, दस आया तो खर्च करो, 100 आया तो 105 खर्च करो, 100 आया तो 1500 खर्च करो। किस काम में? किसी को दवाई दो। लोग तीर्थ जा रहे हैं, उन्हें कम्बल दे दो, खाना दे दो। गर्मी के दिनों में प्याऊ लगाकर पानी दो; साधु-महात्मा दूर-दूर से आते हैं, उनकी सेवा करो। यही सब उनकी आदतें और शिक्षा थीं।
प्रेम, सेवा और दान विहीन साधना स्वामी जी बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। एक विदेशी शिष्य स्वामी जी के दर्शन करने आश्रम में आए थे। उनके मन में यह सवाल लंबे समय से बना हुआ था कि कई संन्यासी लंबे समय तक एकांतवास में रहते हुए साधना करने के बाद भी ध्यान मार्ग में प्रगति क्यों नहीं कर पातें? सत्संग के दौरान उन्होंने अपने मन की उलझन स्वामी के सामने रखी तो स्वामी जी बोल पड़े, ऐसा इसलिए कि उन साधकों में प्रेम और सेवा के अभ्यास से अंत:करण को तैयार करने की कोशिश नहीं करते। दो-दो घण्टे तक कुम्भंक क्रिया द्वारा श्वास रोक लेना, चौबीसों घण्टे प्रार्थना रटते रहना, खाना-पीना छोड़ कर तहखाने के अन्दर चालीस दिन तक समाधि लगाना, खेचरी मुद्रा का अभ्यास करते हुए जीभ काट लेना, ग्रीष्म ऋतु की चिलकती धूप में एक पैर पर खड़े रहना, ठीक मध्याह्न के समय सूर्य पर त्राटक करना, किसी निर्जन और नीरव वन में ॐ.. ॐ.. ॐ… का जप करना, संकीर्तन करते समय अश्रुधारा बहाना – ये सब तब तक निरर्थक हैं जब तक कि इनके साथ व्यक्ति में प्रत्येक प्राणी के अन्दर स्थित ईश्वर के प्रति ज्वलन्त प्रेम न उमड़े और भूत-मात्र में ईश्वर की सेवा करने की भावना जागृत न हो।
स्वामी शिवानंद जी ने जब शरीर त्यागा था, उस समय भी अद्भुत घटना हुई थी। उनका शरीर बिस्तर सहित हवा में ऊपर उठने लगा था। लोगों ने बड़ी मुश्किल से शरीर को पकड़ कर रखा। आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं कि यह चमत्कार नहीं, समाधि की अवस्थाओं की अंतर्निहित क्षमता है, जो साधक को गुरूत्वाकर्षण नियमों की अवहेलना और अनेक शरीरों में प्रकट होने में सक्षम बनाती है। समाधि की मुख्यत: दस अवस्थाएं होती हैं। महान संतों को उन अवस्थाओं में अद्भुत शक्तियां मिल जाती हैं। इसके उदाहरण भरे पड़े हैं। पहमहंस योगानंद सात समंदर पार होते हुए भी अपने गुरू स्वामी युक्तेश्वर गिरि के भौतिक शरीर त्यागने से पहले सशरीर उनके सामने प्रकट हो गए थे। इसी तरह परमहंस योगानंद के परमगुरू लाहिड़ी महाशय ने इंग्लैंड में बीमार अपने एक भक्त को उसके स्थान पर ही दर्शन दिया था।
आजकल आम धारणा बनी है कि चिकित्सा पूरी तरह व्यापार बन चुका है। स्वामी जी खुद ही एमबीबीसए चिकित्सक थे और मलेशिया में जमी जमाई प्रैक्टिस छोड़कर ऋषिकेश में धुनी रमाई थी। वे अपने चिकित्सक शिष्यों से कहते थे कि आपकी आध्यात्मिक साधना यही है कि अस्पताल में काम करते हुए भावना रखें कि रोगियों के रूप में ईश्वर ही प्रकट हुआ है। मन में विचार रखें कि यह शरीर ईश्वर का चलता-फिरता मन्दिर है और यह अस्पताल बड़ा मन्दिर, वृन्दावन या अयोध्या है। बतौर चिकित्सक स्वामी शिवानन्द जी का भी जीवन ऐसा ही था। संन्यास ग्रहण करने के बाद प्रेम, सेवा और दान की भावना से ही कर्मयोग करते रहे। उन्होंने ऋषिकेश में एक कुष्ठ कॉलोनी बनाई थी। वहाँ उन्होंने उनके लिए झोपड़ियाँ बनवाईं थीं और उन्हें राम नाम का उच्चारण करना सिखाते थे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों को सड़क पर भीख माँगने से मना कर दिया। उनको पालने के लिए बकरियाँ दी गईं, क्योंकि कुष्ठ रोगियों को गाय पालना मना है। वे प्रत्येक व्यक्ति में अपने आराध्य का दर्शन कर, बिना किसी शर्त के हर किसी की सेवा, बड़े ही प्रेम से करते थे। ऋषिकेश में उनके द्वारा स्थापित डिवाइन लाइफ सोसाइटी और शिवानंद आश्रम का प्रेम, सेवा और दान मुख्य काम था, जो आज भी अनवरत जारी है।
कालांतर में उनके उनके दो दर्जन से ज्यादा शिष्यों ने ऐसी अवस्थाएं प्राप्त की कि दुनिया के विभिन्न भागों में उनके दिव्य गुणों के प्रकाश से करोड़ों लोगों का जीवन धन्य हो रहा है। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद सरस्वती और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद उसी परंपरा के संत थे। स्वामी शिवानंद सरस्वती कहते थे कि आध्यात्मिक उत्थान के लिए दो स्तरों पर काम करना होगा। हमें आज की परिस्थितियों के अनुरूप यौगिक व आध्यात्मिक शिक्षा का प्रसार करना होगा। साथ ही वैज्ञानिकों को भी पुरानी सोच से बाहर निकलकर पता लगाना होगा कि मीराबाई जहर का प्याला पी गईं और उन पर उसका असर क्यों नहीं हुआ था? ईसा मसीह तीन दिनों तक सूली पर लटके होने के बावजूद जीवित कैसे रह गए थे? तैलंग स्वामी, जिन्हें बनारस का चलता-फिरता महादेव कहा जाता था, कड़े पहरे में जेल में होने के बावजूद किस तरह सड़कों पर घूमते-फिरते दिख जाते थे? यह सुखद है कि आधुनिक विज्ञान अध्यात्मिक शक्तियों का रहस्य जानने के लिए तेजी से कदम बढ़ा रहा है।
योग दर्शन में शिक्षा दी गई है कि पहले हम आत्म-विश्लेषण करें, फिर आत्म-निरीक्षण। इसके बाद आत्म-सजगता के द्वारा अपने को पहचानने का प्रयास करें। स्वामी शिवानंद सरस्वती ने इसमें जोड़ा कि साधकों को यही नहीं रूक जाना चाहिए, बल्कि इन यौगिक साधनाओं को अभिव्यक्त करने की कोशिश करनी चाहिए। यह अभिव्यक्ति प्रेम, सेवा और दान में सन्निहित है। झारखंड के रिखिया का शिवानंद मठ प्रेम, सेवा और दान का अद्भुत मिसाल है। संतों का भौतिक शरीर जब इस जगत से तिरोहित हो चुका होता है तो उनकी वाणी और ओजपूर्ण संदेशों का ही सहारा होता है। आइए, उस महान संत की 137वीं जयंती पर उनके संदेशों को आत्मसात करने का संकल्प लें।
(लेखक उषाकाल के संपादक व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)
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