पारंपरिक परिधान साड़ी में योग का प्रयोग स्वागत योग्य है। आधुनिक युग में योग जैसे ही योगा बना, साड़ी जैसे पारंपरिक परिधान से मानो नाता तोड़ दिया गया। कसरती स्टाइल के योगा को ग्लैमरस दिखाने के लिए शालीनता की तमाम सीमाओं को तोड़ते हुए तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं।
पर, योग के लिए साड़ी के प्रयोग को रूपक के तौर पर लिया जाना चाहिए। परिधान और भी हैं, जो देशकाल के लिहाज से धारण किए जाते हैं और शालीन भी होते हैं। वैसे, साड़ी भारत का सबसे प्रतिनिधि परिधान है। भारत के गौरवशाली इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि सनातन काल से साड़ी की समृद्ध परंपरा रही है। साड़ी ने न केवल भारतीय महिलाओं के परिधान के रूप में, बल्कि भारतीय संस्कृति और धरोहर के एक प्रतीक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसका उल्लेख वेदों में मिलता है। यजुर्वेद में साड़ी शब्द का उल्लेख है। ऋग्वेद में यज्ञ या हवन के समय महिलाओं को साड़ी पहनने का विधान किया गया है।
पौराणिक तस्वीरों में माता पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती हों या सीता, इन सबको साड़ी में ही दिखाया गया है। महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण का प्रसंग है। भगवान श्रीकृष्ण ने साड़ी की लंबाई बढ़ाकर दौपदी की रक्षा की थी। तब साड़ी आत्म कवच बन गई थी। समय के साथ, साड़ी की बुनाई के तरीके, उसकी डिज़ाइनें बदलती रहीं और सांस्कृतिक विविधताओं की झलक मिलती रही है। पर, पहनावों पर पाश्चात्य प्रभावों के बावजूद साड़ी का महत्व कभी कम न हुआ।
वैसे, आधुनिक युग में पहनावा चाहे जैसा भी हो, पर शालीनता का ख्याल रखना भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुडे रहने में मददगार साबित होता है। इस लिहाज से, लखनऊ स्थित माँ भारती नारी योग शिक्षा संस्थान और उन जैसे योग संस्थानों की “पारंपरिक योगाभ्यास, पारंपरिक परिधान में” मुहिम सराहनीय है।
प्रयाग आरोग्यम् केंद्र, लखनऊ के संस्थापक और माँ भारती नारी योग शिक्षा संस्थान के संरक्षक योगाचार्य प्रशांत शुक्ल कहते हैं, योग और साड़ी, हमारी समृद्ध भारतीय संस्कृति के दो सबसे शाश्वत तत्व हैं। योग की प्राचीन शिक्षाएं सरलता और सहजता पर आधारित हैं और साड़ी पहनकर योग करना इस विचारधारा को बल देता है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थिति में योग कर सकता है। साड़ी में योग करते समय ध्यान और अनुशासन के साथ शरीर की गति को नियंत्रित करना, भारतीय संस्कृति में आत्म-नियंत्रण और धैर्य के गुणों को दर्शाता है।