वाराणसी के रामनगर की ऐतिहासिक रामलीला के बारे में तो आपने सुना ही होगा। ऐसी अनूठी रामलीला, जिसके लिए पूरा नगर ही विशाल रंगमंच बन जाता है। गंगा तट अयोध्या तो बड़ा मैदान जनकपुर और किले के पास का इलाका लंका बन जाता है। यह कोई दस दिनों तक चलने वाली रामलीला नहीं होती, बल्कि महीना भर राम कथाओं की प्रगति श्रीराम के जीवन की क्रमवार यात्रा के रूप में होती रहती है। बस, बाकी रामलीलाओं से अलग यह होता है कि रावण मारा नहीं जाता, बल्कि वह श्रीराम के चारणों में समर्पण कर देता है। सन् 1830 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह द्वारा शुरु की गई इस रामलीला की भव्यता और लोकप्रियता यूनेस्को को इस कदर भायी कि रामलीला को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिनिधि सूची में स्थान मिल गई।
वैसे, इस युग की रामलीला का इतिहास इससे भी ज्यादा पुराना है। उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक, पहली बार लगभग पांच सौ साल पहले, गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य मेघा भगत ने वाराणसी के चित्रकूट मैदान में रामलीला का आयोजन किया था। इस बात के पुख्ता दस्तावेज अलग-अलग स्रोतों से उपलब्ध हैं। पर, रामलीला का विचार कैसे आया, इसको लेकर एकमत नहीं है। किवंदंती है कि गोस्वामी तुलसीदास दास वाराणसी के अस्सी घाट की सीढ़ियों पर विचारों में खोए हुए थे। तभी उन्हें राम, सीता और लक्ष्मण की झलक मिली और रामलीला की प्रेरणा जागृत हुई। तब मेघा भगत ने रामलीला का आयोजन करके गुरु को मिली इस प्रेरणा को मूर्त रुप दिया था। इसके साथ ही काशी में रामलीला की परंपरा शुरु हो गई थी, जो कालांतर में देश-दुनिया में फैल गई।
पर, आधुनिक युग में पुराने साक्ष्यों और मुगलकाल की परिस्थितियों के मूल्यांकन के आधार पर किए गए अध्ययनों से अलग ही तथ्य उभर कर सामने आते हैं, जो तर्कसंगत हैं। ताजा अध्ययन कायस्थ इनसाइक्लोपीडिया सहित अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के लेखक और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी उदय सहाय का है। पुरातात्विक अनुसंधान और भारत की ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण करने के लिए प्रतिबद्ध भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और देश में संगीत, नृत्य, नाटक, और लोक कला का संरक्षण, संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए प्रतिबद्ध संगीत नाटक अकादमी में उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर हैं कि रामचरितमानस के नष्ट किए जाने की आशंका प्रबल होने पर श्रुति और स्मृति की सनातन परंपरा की तरह रामचरितमानस को जनमानस में बनाए रखने के लिए रामलीला की योजना बनाई गई और उसे क्रियान्वित किया गया।
गोस्वामी तुलसीदास को टोडरमल का संरक्षण प्राप्त था, यह बात तो उपलब्ध अनेक साक्ष्यों से स्पष्ट है। ताजा अध्ययन के मुताबिक, जब रामचरितमानस जन-जन में लोकप्रिय होने लगा तो कुछ ईर्ष्यालु हिंदू पंडितों को खतरा महसूस हुआ। वे रामचरितमानस को नष्ट करने पर तूल गए थे। तब टोडरमल ने तुलसीदास जी को सलाह दी कि वे अपने महाकाव्य को दस खंडों में बांट कर उन्हें रामलीला के रूप में मंचित करवाएं। दो फायदे होंगे। एक तो जन-जगृति आएगी। दूसरा कि रामचरितमानस आम जन के मानस में रचा-बसा रह जाएगा, जिसे नष्ट करना संभव न होगा। उनका यह विचार और संरक्षण का आश्वासन गोस्वामी तुलसीदास को भा गया। इस तरह, रामलीला का मंचन किया जाने लगा था।
अब तो भारतीय जनमानस में श्रीराम इस कदर रच-बस गए हैं कि डिजिटल और एआई के युग में भी रामलीला प्रकारांतर से विस्तार पा रही है। राजा टोडरमल की तरह मौजूदा समय की सत्ता-व्यवस्था भी रामलीला को देश-काल के अनुरुप ढ़ालकर उसे व्यापकता प्रदान करके रामलीला प्रेमियों की मदद करने के लिए तत्पर दिखती है। बनारस में संगीत नाटक अकादमी का उच्चस्तरीय केंद्र खोलने का प्रस्ताव इस बात का प्रमाण है। रामलीला को एक जीवंत लोकनाट्य के रूप में संरक्षित करने के साथ-साथ उसे आधुनिक सामाजिक संदर्भों से भी जोड़ने की कोशिश की जा हैं, जिससे इसका समाज में व्यापक प्रसार हो सके। इस साल जल संरक्षण और नशा मुक्ति जैसे विषयों पर आधारित रामलीला का मंचन इस बात का प्रमाण है।
रामलीला से इत्तर कुछ और भी बातें हैं, जिन्हें जानने की जिज्ञासा युवापीढ़ी में सदैव बनी रहती है। जैसे, चैत्र नवरात्रों के नवें दिन रामनवमी और शारदीय नवरात्रों के अगले दिन दशहरा के बीच क्या अंतर्संबंध है? शारदीय नवरात्रों के दौरान पूजा-अर्चना, दुर्गा सप्तशती के पाठ और गरबा व डांडिया जैसे सांस्कृतिक आयोजनों के जरिए मॉ दुर्गे के नौ रुपों की आराधना तो दशमी को दशहरा क्यों? सवाल लाजिमी है और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही इसे समझा जा सकेगा। दरअसल, भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार, नवरात्रि के नौ दिनों तक मां दुर्गा ने अलग-अलग स्वरुप धारण करके मधु-कैटभ, महिषासुर और शुंभ-निशुंभ जैसे राक्षसों से युद्ध करके पराजित कर दिया था। तब दसवें दिन बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाया गया था।
नवरात्रों के दौरान जिस देवी महात्म्य या दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है, उसके मुताबिक, देवी का आशीर्वाद है कि जब कभी असुरों का नाश करने के लिए उनसे प्रार्थना की जाएगी, वे अवतरित होंगी। त्रेतायुग में जब दशरथ नंदन श्री राम और लंका का राक्षस राजा रावण के बीच युद्ध में सीधे-सीधे श्रीराम को उतरना था तो उन्होंने भी नौ दिनों तक देवी के नौ रुपों की आराधना की थी। वैदिक दर्शन के अनुसार, प्रारब्ध (पूर्वजन्म के कर्मों का फल), पुरुषार्थ (वर्तमान में किया गया प्रयास), और दैवी कृपा जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर, दैवी कृपा ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ को पूर्णता प्रदान करती है। इसलिए श्रीराम ने रावण बध से पहले माता की आराधना की और उन्हें विजयी मिली। तब विजयोत्सव मनाया गया था।
आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो चैत्र नवरात्रों के अंत में श्रीराम का जन्म इस बात का प्रतीक है कि जब साधक अपने भीतर के दुर्गुणों को मिटाता है, तब उसके हृदय में राम यानी धर्म और मर्यादा की स्थापना होती है। शारदीय नवरात्रों के दौरान वही धर्म और मर्यादा की शक्ति दैवी कृपा से अधर्म का नाश करने की शक्ति देती है। रावण मारा जाता है और हम दशहरा मनाते हैं। इस तरह, चैत्र व शारदीय नवरात्रों और रामनवमी व दशहरे से माता दुर्गा की शक्ति और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के धर्म की विजय और अधर्म के विनाश के साझा संदेश से जुड़ें हुए हैं। इन संदेशों का जन-मानस में सिंचन रामलीला के रुप में होता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)