श्रावण का महीना था। गांव में रक्षाबंधन का दिन आया। हर बहन अपने-अपने भाई के हाथ पर राखी बाँध रही थी। कहीं हँसी के ठहाके, कहीं मिठाई की खुशबू। पर उस दिन एक कोना ऐसा भी था, जहाँ सात साल का छोटा-सा लड़का प्रयागदास अपनी माँ के पास बैठा, उदास होकर रो रहा था।
“माँ… मुझे किसी ने राखी नहीं बाँधी!” माँ ने धीरे से कहा, “बेटा, तुम्हारी कोई बहन नहीं है…” बालक का सीधा-सा सवाल, “माँ! जब सबके पास हाथ-पाँव, नाक-कान हैं और बहन है… तो मेरी बहन क्यों नहीं?” माँ कुछ पल चुप रहीं, फिर बोलीं, “तुम्हारी भी बहन है बेटा… बस, वो अभी अपनी ससुराल में है।” “कहाँ माँ?”
“अयोध्या में…” बस, नाम सुनते ही बालक का मन जैसे पंख लगाकर उड़ चला— “माँ! मैं अभी अयोध्या जाऊँगा!” माँ ने समझाया—”अभी नहीं, बेटा।” पर बालक की जिद पिघलने को तैयार नहीं।
उस रात वह सोचता रहा कि जाकर बहन से मिलूँगा… बहनोई को देखूँगा… बहन राखी बाँधेगी तो मैं उसे कुछ दूँगा भी! सुबह होते-होते उसने अपने पास की एकमात्र धुली-धुली धोती अपने पास दबा ली, यह सोचकर कि यही दूँगा बहन को। और जनकपुर से अयोध्या के लिए पैदल ही प्रस्थान कर गया।
रास्ते में थककर एक पेड़ के नीचे सो गया। जब जागा, तो अनजान लोगों से पूछा, “भैया! ये कौन-सा नगर?” “अयोध्या…” बस, खुशी का ठिकाना न रहा। हर किसी से पूछने लगा, “मेरी बहन का घर कहाँ है? उसका नाम सीता है और बहनोई का नाम श्रीराम है।” लोग हँसकर कहते, “अरे बच्चा! ये तो भगवान हैं, इनका मंदिर है, मकान नहीं।” बालक ने भोलेपन से जवाब दिया, “मुझे मंदिर नहीं, बहन का मकान चाहिए!” दिन भर खोजा—न बहन मिली, न मकान। थका-हारा, पेड़ के नीचे बैठा बड़बड़ा रहा था— “माँ ठीक कहती थी… बड़े लोग गरीब रिश्तेदार को नहीं पहचानते…” और आँसू बहते रहे।
रात के अँधेरे में अचानक दिव्य प्रकाश छा गया। एक हाथी आया, उस पर महावत के स्थान पर स्वयं हनुमानजी और विराजमान थे श्रीसीतारामजी। सेवक पीछे-पीछे। हाथी रुका… सीढ़ी लगी… भगवान उतरे… और पास आकर बोले, “प्रयागदास! यह तुम्हारी बहन सीता है।” बालक चौंक गया, “आपको मेरा नाम भी पता है!” फिर बोला, “नहीं, ये मेरी बहन नहीं हो सकती।” रामजी मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों?” बालक ने कहा, “अगर ये मेरी बहन होती, तो चुपचाप खड़ी न रहती!” ये सुनते ही जानकीजी की आँखें भर आईं। वे दौड़ीं, भाई को गले लगाया, आँसुओं से उसके पाँव धोने लगीं। उस रात बहन-भाई का मिलन देखकर देवता भी भाव-विह्वल हो गए।
रक्षाबंधन था। सीताजी ने राखी बाँधी। प्रयागदास के पास देने को क्या था? वही पुरानी धोती। काँपते हाथों से बहन को दे दी। सीताजी ने आँसू पोंछते हुए कहा, “भैया! ये माँ को देना और कहना कि उनके आशीर्वाद से मैं बहुत आनंद में हूँ।” क्षणभर में वह दिव्य दृश्य अदृश्य हो गया और बालक हृदय में अमिट स्मृति भरकर रातभर रोता रहा।
समय बीतता गया। माँ के देहांत के बाद, प्रयागदास ने अयोध्या में रहकर राम-सीता को अपना सबकुछ मान लिया। लोग प्यार से उन्हें मामा प्रयागदास कहने लगे—क्योंकि वे सदा कहते, “सीता मेरी बहन है… तो राम मेरे बहनोई हुए!” एक दिन कथा में सुना—भगवान वनवास गए हैं। बालक जैसा हृदय तड़प उठा। सोचने लगा – “झगड़ा किस घर में नहीं होता। इनको अयोध्या में रहना चाहिए था! बहन भी चली गई। अब वन में इनकी सुविधा का इंतज़ाम करना पड़ेगा।”
पहली बार जीवन में लोगों से पैसे माँगे और उससे तीन पलंग, तीन जोड़ी जूते, तीन जोड़ी रज़ाई-गद्दे बनवा लिए। सारा सामान सिर पर रख, पैदल चित्रकूट पहुँच गया। सामानों को मंदाकिनी किनारे रखकर आवाज दी, “निकल आओ! अब नहीं लड़ेंगे! बाहर आओ!” भगवान प्रकट हुए। बोले, “वन में हम ये सब उपयोग नहीं करते।” प्रयागदास ने ठिठोली की, “तो बड़े व्रतधारी बनोगे? अच्छा, मत पहनना!”
सीताजी ने कहा, “प्रभु! इन्हें साकेत दिखा दीजिए।” भगवान ने साकेत का वैभव दिखाया। प्रयागदास बोले, “वाह! तुम्हारे तो बड़े ठाठ हैं। पर तुम्हारे कारण मुझे भीख माँगनी पड़ी। इस कलंक को मिटाने के लिए तुम ही ये पलंग लो!” और मुस्कुराते लौटे गए।
एक दिन किसी ने पूछा, “बाबा! आप संत हैं?” वे हँसकर बोले, “नहीं! मैं रामजी का सार हूँ, साला भी और संसार का सार भी!” ऐसा था प्रयागदास का अलभ्य प्रेम, जहाँ भगवान से भी पहले बहन का रिश्ता याद आता है, जहाँ उपहार में पुरानी धोती भी अमूल्य बन जाती है, और जहाँ सेवा में वैभव नहीं, मन की सच्चाई सबसे बड़ी पूँजी होती है।
राजेश रामायणी ने बड़े ही सुंदर ढंग से यह कथा सुनाई थी। मैंने तो उनकी कथा के मूल भाव को अपने शब्दों में पिरोकर अभिव्यक्त करने की कोशिश की है। रक्षा-बंधन की शुभकामनाएं।