हंस (आत्मा) उड़ गया। काया (शरीर) मुरझा गई। शास्त्रीय संगीत की एक सशक्त आवाज सदा के लिए खामोश हो गई। जो मृत्युलोक में आया है, उसकी यही गति होनी है। पर, शास्त्रीय गायन की विशिष्ट शैलियों के जरिए ईश्वर से सीधा संवाद करने वाले सुरों, रागों और नादयोग के मर्मज्ञ पंडित छन्नूलाल मिश्र का जाना एक भक्त के जाने जैसा है, जो तभी तक आगे की ओर गति करता है, जब तक कि वह परमात्मा तक पहुंच न जाए। सामान्यत: जाने वाले लौट भी आते हैं। बदले हुए स्वरुप के कारण हम उन्हें पहचान नहीं पाते। पुनर्जन्म का सिद्धांत यही कहता है। पर, हरि को भजने वाला तो हरि का ही हो जाता है। उसके लिए यात्रा शेष कहां रह जाती है। पंडित जी के जीवन और उनकी आध्यात्मिक साधना पर गौर करें तो उनका जाना भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होगा।
अब हमारे बीच रहेगी उनकी आध्यात्मिक विरासत। यह न केवल संगीत के रूप में, बल्कि आध्यात्मिक प्रेरणा, सांस्कृतिक मूल्यों और मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में सदैव जीवित रहेगी। पद्म विभूषण सम्मानित पंडित छन्नूलाल मिश्र के गायन में अलौकिक मिठास थी। उन्होंने अपनी गायकी से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत विशेषकर ठुमरी, दादरा, कजरी और चैती की पुरब अंग शैली को नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया। पंडित जी कोई भी राग आलापते तो ऐसा लगता था मानो उनका कंठ ही वैकुंठ का द्वार बन गया हो। उनके भक्ति संगीत की शैली में बनारसी मिठास, भावपूर्ण विवेचना और शब्दों की अत्यंत स्पष्ट अभिव्यक्ति होती थी।
पंडित जी बनारस घराने से ताल्लुकात रखते थे। यह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक प्रमुख घराना है, जो वाराणसी (काशी) की प्राचीन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मिट्टी से उपजा। पंडित जी कहते थे, “यह घराना ध्रुपद, धमार, ख्याल आदि ध्यान और भक्ति पर केंद्रित हैं, और भैरव, मालकौंस या यमन रागों का उपयोग आध्यात्मिक अनुभूति के लिए किया जाता है। दूसरी ओर ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी, होरी, भजन आदि में विरह, प्रेम और भक्ति के तत्व प्रमुख हैं। ये संगीत को सांसारिक से पारलौकिक स्तर तक ले जाते हैं।“
शास्त्रीय संगीत में गायन शैलियों के साथ ही रागों की भी बड़ी अहमियत है। राग मात्र संगीत संरचना नहीं होते हैं, बल्कि वे आत्मा को दिव्यता से जोड़ने का माध्यम होते हैं। रागों की अहमियत बताने के लिए एक घटना का उल्लेख प्रासंगिक है। तानसेन के बारे में कहा जाता था कि वे जब राग दीपक अलापते हैं तो बुझा दीपक भी जल उठता है। अकबर ने तानसेन की परीक्षा लेने के लिए दरबार में हज़ारों बुझे हुए दीपक रखवा दिए। तानसेन ने राग दीपक गाया और सभी बुझे हुए दीपक जल उठे थे।
खैर, पंडित जी जीवनपर्यंत अपनी विशिष्ट गायन शैलियों और रागों से भारतीय कला और संस्कृति को समृद्ध करते रहे। वे भक्ति संगीत की महत्ता बताते हुए कहते थे, “रामचरितमानस पढ़ने और शब्दों के अर्थ निकालने के लिए नहीं, बल्कि गाने के लिए रचा गया। इसलिए तमाम संतों ने इसका गायन किया। रामचरितमानस को गाने के लिए बनाया गया, इसका प्रमाण क्या है? उत्तरकांड में गोस्वामी तुलसीदास जी एक श्लोक के जरिए स्पष्ट करते हैं, “भनित तुलसीदास रघुपति चरित सुभ गाव….” यानी शुभ काव्य को गाएं। यहां सीधे-सीधे गाने का आह्वान है। इसलिए उन्होंने रामचरितमानस को मंगलमय गायन की धारा में ढाला, ताकि हर वर्ग का व्यक्ति इसे गाकर और सुनकर आनंद पा सके।
पंडित जी अपने स्टेज को निराकार ब्रह्म का मंदिर बताते हुए कहते थे, स्वर और लय का रुप निराकार है। लेकिन इस ध्वनि से उत्पन्न कंपन का असर सब पर पड़ता है। इस बात को एक कथा के जरिए स्पष्ट करते थे। कथा है कि नारद मुनि ने भगवान से पूछा कि वे वैकुंठ में रहते हैं या योगियों के हृदय में? तब भगवान उत्तर दिया – “हे नारद! मैं न तो वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, बल्कि मैं तो वहां रहता हूँ, जहाँ मेरे भक्त मेरे नाम को भज रहे होते हैं।“ चूंकि मैं मंच से भगवान के यश का गायन करता हूं और श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सुनते हैं, इसलिए भगवान यहां उपस्थित होते हैं और यह स्टेज ही निराकार ब्रह्म का मंदिर बन जाता है। परम सत्ता या ईश्वर ध्वनि या कंपन के रूप में विद्यमान है।“
अब यह नाद योग की बात हो गई। नाद योग ध्वनि और कंपन पर आधारित योग की एक प्राचीन शाखा है, जिसमें मंत्र जाप, संगीत सुनना और आंतरिक ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। नाद योग की शास्त्रीय संगीत में एक मौलिक और गहन भूमिका है। इसे संगीत की आध्यात्मिक आधारशिला माना जा सकता है। नाद योग का सैद्धांतिक पक्ष यह है कि समस्त ब्रह्मांड की उत्पत्ति और अस्तित्व ‘नाद’ (ध्वनि या कंपन) से हुआ है, और शास्त्रीय संगीत इसी दिव्य नाद को साधने और अनुभव करने का एक साधन है। इसलिए पंडित जी कहते थे कि नाद ब्रह्म यानी ईश्वर स्वयं ध्वनि-स्वरूप है। संगीत का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि इसी नाद ब्रह्म की अनुभूति कराना है।
पंडित छन्नूलाल मिश्र ने ज्ञान, वैराग्य और भक्ति इन सभी को आत्मसात किया और स्वर के माध्यम से उन्हें अभिव्यक्त किया। मंच की प्रस्तुतियों को छोड़ दें तो वे व्यक्तिगत रुप से नाम जप को ज्यादा महत्व देते थे। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड की एक चौपाई है, “नहिं कलि कर्म न धर्म विवेकु, राम नाम अवलंबन एकु।” यानी कलियुग में न कर्मकाण्ड, न धर्म और न ही विवेक काम आता। ऐसे अंधकारमय युग में केवल रामनाम से ही मनुष्य का उद्धार हो पाता है। श्रीमद्भागवतम् में अजामिल की कथा का सार भी कुछ ऐसा ही है। पंडित जी कहते थे, “मैंने अपने जीवन में नाम का सहारा लिया और फर्क महसूस हुआ।“
“खेलें मसाने में होली दिगंबर…” पंडित जी का गाया एक प्रसिद्ध शिव भजन है। यह होली के उत्सव को आध्यात्मिक रूप में प्रस्तुत करता है। संदेश यह है कि सच्चा आनंद जीवन-मृत्यु के चक्र से परे है। श्मशान का चुनाव जीवन की अस्थिरता और मृत्यु की सच्चाई को याद दिलाता है, जहां शिव अघोरी रूप में सब कुछ अपनाते हैं। भरोसा है कि भक्ति की आध्यात्मिक ज्योति प्रज्वलित करने वाले इस महान साधक को भी बाबा भोलेनाथ स्वीकार करके अपने चरणों में स्थान देंगे। सादर नमन।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)