तपस्या केवल बाहरी कठोर साधना नहीं है, बल्कि इन्द्रियों की शुद्धि, हृदय की पवित्रता और प्रभु से एकत्व का अनुभव ही वास्तविक तप है। इसी से ज्ञान की प्राप्ति होती है। वही अमृत है, वही मुक्ति है। छांदोग्य उपनिषद, कठोपनिषद और श्रीमद्भगवतगीता जैसे ग्रंथों की गूढ़ बातें ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी महाराज शवासन शवासन की अवस्था में ठीक वैसे ही सुना रहे थे, जैसे दिव्य दृष्टि वाले संजय महाभारत की घटनाओं का आंखों देखा हाल सुना रहे थे।
ऐसा कोई पहली बार नहीं था। बाल्यावस्था से ही वे जब कभी शवासन में होते, तो उनकी स्थिति योग समाधि जैसी बन जाती थी। चेतना मानो देवलोक से जुड़ जाती थी। वैदिककालीन ऋषियों की बातें और कभी-कभी ऋंगी ऋषि और उनके महानंद नामक शिष्य के बीच का संवाद ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी महाराज के मुख से ही ऐसे उच्चारित होने लगता था, मानो त्रेतायुग में हो रहे संवाद का लाइव प्रसारण उनके श्रीमुख रुपी ट्रांजिस्टर के जरिए हो रहा हो। जब कभी श्रृंगी ऋषि की बात आती तो कृष्णदत्त जी महाराज ऐसे बोलने लगते मानो वे ही श्रृंगी ऋषि हों।
शुरु में तो उनके इस व्यवहार को मानसिक कमजोरियों का परिणाम माना गया। पर जब बात फैली और गुणी लोगों ने उन बातों का शास्त्रीय विश्लेषण किया, तो स्पष्ट हुआ कि उनकी चेतना श्रृंगी ऋषि वाली है। फिर तो उन्हें श्रृंगी ऋषि का अवतार मान लिया गया। सनातनियों में इस बात को लेकर कोई संशय भी नहीं था। इसलिए कि भगवान विष्णु के दशावतार की कथा से लोग भलिभांति वाकिफ हैं। श्रृंगी ऋषि भी प्राचीन भारतीय परंपरा में एक महान तपस्वी और ऋषि थे। जब राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन किया था तो श्रृंगी ऋषि को ही मुख्य ऋत्विज बनाया था।
ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी महाराज का जन्म 27 सितंबर 1942 को गाजियाबाद जिले के खुर्रमपुर-सलेमाबाद गांव में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। उनकी औपचारिक शिक्षा कुछ भी नहीं थी। माता-पिता के पास धन नहीं था कि वे उन्हें पढ़ा पातें। वैसे भी जन्म से ही विक्षिप्त मालूम पड़ते थे तो माता-पिता का ज्यादा समय उनके उपचार की चिंता में बीत जाता था। पर, तुरीयावस्था में जाते ही ब्रह्मलोक के ऋषि जैसी अपनी वाणी से लोगों को अचंभित कर देते थे। भारतीय दर्शन में तुरीयावस्था को चेतना की सर्वोच्च अवस्था माना जाता है, जो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति (गहरी नींद) से परे है। मांडूक्य उपनिषद के अनुसार, यह जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे चेतना की चौथी अवस्था है, जहां आत्मा अपने शुद्ध, निर्विकार स्वरूप में ब्रह्म के साथ एकरूप हो जाती है। इसमें द्वैत का भान समाप्त हो जाता है, और ऋषि परम सत्य का अनुभव करता है।
वैसे तो भारत के अनेक महान संत हुए, जिनकी औपचारिक शिक्षा कुछ भी नहीं थी। पर, वे आत्मज्ञानी संत थे। संत ज्ञानेश्वर इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। उन्होंने कभी गुरुकूल का मुंह नहीं देखा था। पर ज्ञानेश्वरी गीता उनके ज्ञान की पराकाष्ठा है। ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी महाराज भी तुरीयावस्था में ब्रह्माण्डीय संरचना, वेदों के रहस्य, आत्मा-परमात्मा की प्रकृति, और विभिन्न आध्यात्मिक ज्ञान की बातें धाराप्रवाह बोलते जाते थे। विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के संन्यासी स्वामी शिवराजानंद सरस्वती उनसे मिलने के बाद इस निष्कर्ष पर थे कि महाराज जी की चेतना का विस्तार किसी अन्य लोक तक था।
योगबल की बदौलत आत्म-दर्शन होने से मनुष्य में देवत्व का उदय होना असाधारण बात तो है, पर दुर्लभ नहीं। एक ही काया को कई स्थानों पर प्रकट कर देने और परकाया प्रवेश के भी उदाहरण हैं। “अमरुक शतकम्” के मुताबिक, आदिगुरु शंकराचार्य ने परकाया प्रवेश करके काम विद्या का ज्ञान हासिल करके मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती से शास्त्रार्थ किया था। दूसरी घटना इसी युग की है। सन् 1939 में असम-वर्मा की सीमा पर तैनात भारतीय कमाण्ड के सेनापति एल.पी. फैरेल ने अपनी आंखों से नदी के तट पर एक संन्यासी को देखा था कि कैसे उसका शरीर धरती पर गिर गया और पास का मुर्दा जीवित होकर चलने लगा था। कुछ समय बाद पुरानी स्थिति बहाल हो गई थी। इस प्रसंग का उल्लेख पॉल ब्रंटन की पुस्तक “इन द सर्च ऑफ सीक्रेट इंडिया” में है।
पर पिछले कई युगों के ऋषियों जैसे ज्ञान के साथ शरीर धारण करना, रोज-रोज सामान्य अवस्था से तुरीयावस्था मे चले जाना और उस दौरान वैदिककालीन ऋषियों की चेतना को आत्मसात कर उनके ज्ञान का वाचन इस प्रकार करना मानो वे उसी काल में उपस्थित हों, वर्तमान युग में अविश्वसनीय और विस्मयकारी था। श्रीकृष्णदत्त जी महाराज के श्रीमुख से जो वाणी मुखरित होती थी, उसकी एक बानगी देखिए – श्रीराम ऋषि-मुनियों से नम्रतापूर्वक कह रहे हैं, “हे भगवन! आज्ञा करें।” महर्षियों ने उत्तर दिया, “राम, हम यहाँ एक यज्ञ का आयोजन करना चाहते हैं।” यह सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले, “प्रभु! यह हमारा परम सौभाग्य है कि आप जैसे महापुरुष अयोध्या पधारे और यहाँ यज्ञ करना चाहते हैं……..।
श्रीराम ने ऋषि-मुनियों के लिए विश्राम-कक्षों की व्यवस्था करवाई। उन्होंने शिल्पकारों को आदेश दिया, “हे शिल्पकारों! यज्ञशाला का निर्माण करें और यज्ञ के लिए आवश्यक समस्त सामग्री एकत्र करें।” शिल्पकारों ने सरयू नदी की अमृतमयी धारा के तट पर एक भव्य यज्ञशाला का निर्माण किया। इसके बाद श्रीराम ने ऋषि-मुनियों को आदरपूर्वक आमंत्रित करते हुए कहा, “हे पूज्य महर्षियों! कृपया यज्ञशाला में पधारें और यज्ञ को संपन्न करें।” ऋषि-मुनि प्रसन्नतापूर्वक यज्ञशाला में विराजमान हुए। श्रीराम ने यज्ञ के लिए ऋत्विजों का चयन किया। अग्निहोत्र के साथ ही वेदमंत्र गूँजने लगे थे…..।“
कलयुग के किसी व्यक्ति में ब्रह्मांडीय चेतना जागृत हो जाने की बात फैलते देर नहीं लगी। दर्शन के लिए भीड़ उमड़ने लगी। अनेक लोगों ने तुरीयावस्था में कही गई बातों को टेप कर लिया। ब्रह्मर्षि कृष्णदत्त जी ने पचास वर्ष की अवस्था में सन् 1992 में समाधि ले ली थी। पर भक्तों को उनकी सूक्ष्म उपस्थिति का अहसास सदैव होता है। श्रृंगी ऋषि कृष्णदत्त वेद यज्ञ-विज्ञान न्यास के महासचिव श्री कृष्णावतार का सृजनात्मक कार्य उत्प्रेरक का काम करता है। वे महाऋषि की वाणी को संग्रहित करके न केवल उसका प्रकाशन कराते हैं, बल्कि उसकी व्याख्या करके प्रचारित-प्रसारित भी करते हैं, जो इस युग के लिहाज से बेहद कल्याणकारी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)