विजयादशमी का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है और इससे जुड़ी अनेक कथाएं भी हैं। बेशक, ये कथाएं अलग-अलग काल-खंडों के हैं। पर, इन कथाओं से इतना पता चलता है कि शुभ कार्य शुभ समय में ही होते हैं और सदैव असत्य पर सत्य की जीत होती है। त्रेतायुग से महानवमी के बाद विजयादशमी या दशहरा मनाए जाने की कथा श्रीराम से जुड़ी हुई है। श्रीराम ने नवरात्रि के दौरान देवी के नौ स्वरुपों की साधना करके दैवी कृपा प्राप्त की थी। ताकि आसुरी शक्तियों का नाश किया जा सके।
श्रीराम को पता था कि सृष्टि के प्रारंभिक दिनों से ही किस तरह राक्षसों ने देवताओं का जीवन खराब कर रखा था। आसुरी शक्तियों के कारण सत्वगुणों का विकास मुश्किल हो गया था। तब सत्वगुणी देवताओं की प्रार्थना पर देवी ने अलग-अलग काल-खंड में कभी महाकाली, कभी महालक्ष्मी और कभी महासरस्वती का स्वरुप धारण करके जगत का कल्याण किया था। श्रीराम यह भी जानते थे कि तमाम सिद्धियों के बावजूद दैवी कृपा न हो तो रावण बध मुश्किल होगा। पौराणिक कथाओं के अनुसार, हमें ज्ञात है कि भगवान विष्णु के आठवें अवतार श्रीराम ने सत्युग में दस सिरों वाले राक्षस रावण का वध किया। इस तरह माता सीता मुक्त हो पाई और बुराई पर अच्छाई की जीत हुई थी।
दशनामी संन्यास परंपरा के महान संत और चिन्मय मिशन के संस्थापक स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती के मुताबिक, श्रीराम की सेना पर रावण की सेना भारी पड़ रही थी। श्रीराम को विस्मय हुआ। ध्यान में बैठें तो उन्हें दिख गया कि माता की कृपा से रावण जैसा क्रूर राक्षस रणक्षेत्र में अटल है। श्रीराम ने भी देवी की कृपा के लिए नौ दिनों की साधना की। अंतिम दिन देवी का आशीर्वाद मिल गया। दशनामी संन्यास परंपरा के प्रखर संन्यासी और चिन्मय मिशन के संस्थापक रहे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती के भाष्य के मुताबिक, नवमी को माता से आशीर्वाद मिलने के बाद दशमी से श्रीराम का विजय अभियान शुरु हुआ था और उन्नीसवें दिन रावण मारा गया था। यानी रावण विजयदशमी के दिन नहीं, बल्कि दीपावली से एक दिन पहले मारा गया था। रावण बध के दिन ही श्रीराम-जानकी-लक्ष्मण सभी पुष्पक विमान पर सवार होकर लंका से कूच कर गए थे। पंचवटी, प्रयागराज आदि स्थलों के दर्शन-पूजन करते हुए बीसवें दिन अधोध्या पहुंचे तो राज्याभिषेक हुआ और दिवाली मनाई गई थी।
विजयादशमी की एक अन्य कथा मां दुर्गा से संबंधित है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, महिषासुर नामक राक्षस ने अपने अजेय बल से स्वर्गलोक और पृथ्वी पर आतंक मचा रखा था। ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे देवता भी उसे परास्त नहीं कर सके। तब सभी देवताओं ने मिलकर मां शक्ति के रूप में दुर्गा को प्रकट किया। मां दुर्गा ने नौ दिनों तक महिषासुर से युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध कर स्वर्गलोक को पुनः देवताओं को सौंप दिया। इस विजय को भी विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है, जो नारी शक्ति और धर्म की जीत का प्रतीक है।
महाभारत से जुड़ी एक कथा के अनुसार, पांडवों को कौरवों ने जुए में हराकर 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास की सजा दी थी। अज्ञातवास के दौरान अपनी पहचान छिपाने के लिए पांडवों ने अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्र शमी वृक्ष के नीचे छिपा दिए। हर वर्ष वे शमी वृक्ष के पास जाकर अपने हथियारों की जांच करते और मां दुर्गा की पूजा करते। जब कौरव उनकी खोज में असफल रहे और अज्ञातवास पूरा हुआ, तब पांडवों ने शमी वृक्ष से अपने हथियार निकाले और कौरवों के खिलाफ युद्ध में विजयी हुए। यह घटना दशमी के दिन हुई, जिसे विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है। तब से शमी वृक्ष के नीचे एक-दूसरे को गले लगाने और इसके पत्तों का आदान-प्रदान करने की परंपरा प्रचलित है।
हम सब विजयादशमी को दशहरा भी कहते हैं। बीसवीं सदी के महान संत परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे, संस्कृत शब्द ‘दशहरा’ का अर्थ है ‘दस सिरों का नाश’ (रावण के दस सिरों का प्रतीक) या ‘बुरे भाग्य का नाश’। आध्यात्मिक नजरिए से देखें तो हमारे भी दस सिर हैं। हम पांच ज्ञानेंद्रियों, यानी संवेदी अंगों—और पांच कर्मेंद्रियों, क्रियाशील अंगों, की मदद से इस संसार में भाग लेते हैं। हमें भी इन पर विजय प्राप्त करनी होती है। इसी में है दशहरे की सार्थकता
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप अपनी नाक और कान काट डालें, या गंधारी की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध लें! नहीं, इंद्रियों को सिर्फ सीमित करने से कुछ हासिल नहीं होता, जब तक मन से इच्छा को हटाया न जाए। इच्छा…, इच्छा तो प्यास है! और यह प्यास उम्र के साथ कम नहीं होती, बल्कि बढ़ती जाती है। जैसे-जैसे बाल सफेद होते हैं, इच्छाएं घनीभूत होती जाती हैं। इसका केंद्र है मणिपुर चक्र, जहां इच्छाएँ कुंडली मारकर बैठी रहती हैं। और जब तक वह वहां टिकी रहेगी, अपने भीतर के रावण को मारना संभव नहीं। इंद्रियों पर विजय पाना संभव नहीं।
इच्छा चाहे जैसी भी हो, भोग की हो, या फिर योग की, यह हमारे लिए हथकड़ी का काम करती है। और इच्छा प्रत्येक व्यक्ति में अनादिकाल से मौजूद है। कबीरदास भी कह गए कि इच्छा जन्मों से चली आ रही है। कौन जानता है, पिछले जन्म की कौन-सी अधूरी इच्छा हम साथ लेकर आए हैं! कलियुग में भारत के गरीबों की इच्छा रोटी, कपड़ा और मकान की रही है। थोड़ी समृद्धि बढ़ी तो कार और डिजिटल उपकरण का सपना देखते हैं। वैदिक शास्त्रों का मत है कि अगर उनकी इच्छाएं पूरी नहीं हुईं, तो वे उन्हें अगले जन्म में ले जाएंगे। इच्छाएं अधूरी इच्छा से ही जन्म लेती हैं। रावण भी इसी इच्छा रुपी अमृत घड़े था। मणिपुर चक्र रुपी अमृत-कलश पर वाण लगते ही वह धराशायी हो गया था। गुरुजन का मत है कि हम सभी राम नहीं, रावण हैं। नाना प्रकार की इच्छाएं, कुविचार में मन बने रहते हैं।
अब सवाल यह है, इससे मुक्ति कैसे मिले? हर बार जब राम ने रावण के दस सिर काटने की कोशिश की, वे फिर से उग आते थे। अंत में, उन्होंने विभीषण से समाधान पूछा। विभीषण ने कहा, “जब तक अमृत का स्रोत सूख न जाए, रावण नहीं मरेगा।” इसलिए राम ने अग्न्यास्त्र का उपयोग किया। अग्नि हथियार! अग्नि की प्रकृति है जलाना, और इच्छा पानी की तरह है। अगर आप पानी को उबालते रहें, तो वह भाप बन जाएगा और अंततः वाष्पित हो जाएगा।
भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं, “निस्संदेह, हे महाबाहु अर्जुन, मन को नियंत्रित करना कठिन है और चंचल है; लेकिन अभ्यास और वैराग्य से इसे नियंत्रित किया जा सकता है।” हां, अभ्यास और वैराग्य—अभ्यास और अनासक्ति से मन को काबू में किया जा सकता है। ये दो विधियां हैं, वे अग्न्यास्त्र हैं, जिनसे रावण को मारा जा सकता है, अमृत का तालाब सूखाया जा सकता है। योग सूत्रों में भी यही कहा गया है: “अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।”
वैराग्य तो वह अग्नि हथियार है, जो वर्तमान को अतीत से अलग करने की शक्ति प्रदान करता है। अतीत की घटनाएं हमारे वर्तमान जीवन को प्रभावित करती हैं। आप जो कुछ भी देखते या सुनते हैं, वह आपके मन में जमा हो जाता है। अतीत का वर्तमान से संबंध हर व्यक्ति को खुद निर्धारित करना होता है। लेकिन हम ऐसा करने में सक्षम नहीं होते, और इसलिए हमारे मन अशांत रहते हैं।
इसलिए, गुरुजन कहते हैं कि आज के युग में, राम और रावण, देवी और महिषासुर को हमारे वर्तमान जीवन में महत्व देना चाहिए। हमें उन्हें अपने आसपास के समाज और स्थितियों से जोड़ना चाहिए। विजयादशमी के प्रति यही सही दृष्टिकोण है। और हम भाग्यवान तभी हो सकते हैं जब कर्म के साथ ही दैवी कृपा भी हो। इसके लिए साधना ही संबल है। दशहरे की अशेष शुभकामनाएं।