सारे पर्व-त्योहार इतिहास के पन्ने हैं। जब हम उन ऐतिहासिक घटनाओँ की याद में उत्सव मनाने हैं तो अपने सांस्कृतिक मूल्यों से जुड़े रहते हैं। यौगिक दृष्टिकोण से इससे भी बहुमूल्य बात यह है कि जब हम उन ऐतिहासिक घटनाओँ के संदेशों को आत्मसात करते हुए अपनी चेतना का क्रमिक विकास भी करते हैं तो जीवन में पूर्णता आती है। बात शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत दीपावली की हो या लक्ष्मी व काली पूजन की, इन सभी मामलों में ये सिद्धांत ही काम करते हैं। पर, समय व देश-काल की प्रकृति के अनुरुप इन त्योहारों के साथ कई भ्रांत धारणाएं जुड़कर परंपरा का हिस्सा बन चुकी हैं। नतीजतन, हमें करनी थी अंतर्यात्रा। ताकि हम में वैदिक शिक्षाएं फलीभूत हो सकें। जीवन धन्य हो सके। पर हम करने लगे बहिर्यात्रा। इससे सुख-समृद्धि की भौतिक अवधारणाएं बलवती हुईं और जीवन कष्टकर होता गया।
आलम यह कि राह चलते दस लोगों के पूछ लीजिए कि दीपावली के दिन ही लक्ष्मी पूजा क्यों की जाती है तो हो सकता है कि उनमें से कई लोग इसका सही उत्तर न दे पाएं। दीपावली के दिन तमसो मा ज्योतिर्गमय…. के साथ शुभकामनाओं से सोशल मीडिया अंटा पड़ा होता है। पर, बृहदारण्यक उपनिषद् की इस त्रयी प्रार्थना के आध्यात्मिक संदेश के बारे में कम ही लोगों को पता होता है। जबकि हमारी जितनी भी पौराणिक कथाएं हैं, वे सभी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से बड़े महत्व की हैं। देशकाल और धार्मिक मान्यताएं अलग-अलग होने के कारण उनमें विभेद भले दिखे, पर परिणाम एक जैसे होते हैं। दीपावली और लक्ष्मी पूजा, लक्खी पूजा या काली पूजा में भेद होने के बावजूद आध्यात्मिक उपलब्धियां लगभग समान है।
हम जानते हैं कि दीपों का त्योहार दीपावली भारत के महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। यह अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इन प्रतीकों का अपना विज्ञान है, मनोविज्ञान है और धार्मिक मान्यताएं हैं। तुलसी रामायण के मुताबिक, भगवान श्रीराम रावण वध करके अमावस्या के दिन अयोध्या पहुँचे तो उनके आगमन और उसी दिन राज्याभिषेक की खुशी में दीपावली मनाई गई थी। जैन धर्मावलंबी 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर के निर्वाण दिवस पर दीपोत्सव का आयोजन करते हैं। इसी तरह सिख और आदिवासी समाज भी अलग-अलग स्मृतियों और पौराणिक घटनाओं के आधार पर दीपोत्सव मनाता है।
हमारे साधु-संतों और योगियो ने दीपावली को एक गहन आध्यात्मिक और सांकेतिक दृष्टिकोण से देखा। इसे केवल एक बाहरी उत्सव के रूप में नहीं, बल्कि आंतरिक चेतना की एक घटना के रूप में देखा। जैसे, बाह्य तौर पर दीपावली बुराई (रावण) पर अच्छाई (राम) की जीत, और अंधकार पर प्रकाश की जीत का प्रतीक है। उसी तरह, आत्मज्ञानी संतों ने अनुभव किया कि हमारे मन और हृदय के भीतर भी संघर्ष चलते रहता है। इसके कारण स्वार्थी इच्छाएं, लालसा, क्रोध, ईर्ष्या, अज्ञानता और अहंकार बना रहता है। यही हमारे जीवन का अंधकार है। जब हम योग साधनाओं की बदौलत अज्ञान, स्वार्थ, कामनाएँ रुपी अंधकार को मिटा देते हैं तो हमारी चेतना प्रकाशमय हो जाती है। इसलिए, बृहदारण्यक उपनिषद् में प्रार्थना की गई है कि असतो मा सद्गमय यानी असत्य से सत्य की ओर ले चलो, तमसो मा ज्योतिर्गमय यानी अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो और मृत्योर्मा अमृतं गमय यानी मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। यह मंत्र मानव जीवन के क्रमिक विकास यानी सत्य की खोज, ज्ञान की प्राप्ति, और अंततः मुक्ति का संदेश देता है।
दीपावली के दिन ही लक्ष्मी-गणेश पूजा का विधान है। ऐतिहासिक रुप से लक्ष्मी पूजा का दीपावली से कोई संबंध नहीं है। बल्कि, महज संयोग है कि दोनों उत्सव एक ही दिन है। लक्ष्मी जी से जुड़ी कथा सतयुग में समुद्र मंथन से संबंधित है। देवों और असुरों ने समुद्र मंथन किया, तो चौदह रत्न निकले थे। इनमें से एक रत्न के रुप में देवी लक्ष्मी कार्तिक मास की अमावस्या के दिन प्रकट हुईं थीं। इसके साथ ही इंद्र के जीवन में श्री का पदार्पण हुआ और असुर साम्राज्य का पतन हुआ। पर, तात्विक रूप से इसका अर्थ गहरा है। समुद्र मंथन की कथा से हमें प्रेरणा मिलती है कि अंधकार (असुर) और प्रकाश (देव) के संघर्ष के बाद ही वास्तविक समृद्धि (लक्ष्मी) प्राप्त होती है। समुद्र मंथन मनुष्य की आंतरिक साधना का प्रतीक है। समुद्र मन है, मंथन निरंतर साधना है, और लक्ष्मी (ऐश्वर्य) उस साधना का फल है। दीपावली भी अंधकार पर प्रकाश की विजय का ही उत्सव है। इसलिए, दार्शनिक रूप से दोनों का संदेश लगभग एक ही है।
लक्ष्मी की वास्तविक कृपा जीवन में संतोष के गुण में दिखाई देती है, न कि भौतिक लालसा या उपलब्धियों में। दुनिया का सबसे गरीब व्यक्ति भी, यदि उसके पास संतोष है, तो वह किसी राजा से अधिक धनी है। शायद इसलिए, बीसवीं सदी के महान संत स्वामी रामतीर्थ आर्थिक रुप से विपन्न होते हुए भी खुद को राम बादशाह कहते थे। यह महज संयोग ही कहिए कि उनका समाधि दिवस भी दीपावली के दिन ही है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि जो अपने भाग्य में प्राप्त वस्तु से संतुष्ट रहता है, वह द्वंद्वों और ईर्ष्या से मुक्त हो जाता है। संतोष को “अन्तःशुद्धि का द्वार” भी कहा गया है। महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में कहा गया है – संतोषात् अनुपम सुखलाभः। यानी, जब मनुष्य अपनी परिस्थितियों में संतुष्ट होता है, तब उसे ऐसा आंतरिक सुख मिलता है, जो किसी बाह्य वस्तु से नहीं मिल सकता। इसलिए, जब लक्ष्मी जी की दृष्टि पड़ती है, तो हृदय में संतोष बढ़ता है। जीवन में शांति, समृद्धि और वैभव स्थापित होते हैं।
विश्व प्रसिद्ध बिहार योग विद्यालय के परमाचार्य परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं, “जब दिन अंधेरी रात जैसी हो, मन उदास हो और रास्ता ढूँढना मुश्किल हो, तब भी अपने हृदय को थकने न दें। योग साधनाओं की बदौलत अपने हृदय में एक छोटी-सी चिंगारी प्रज्वलित होने दें…।“ यहां “चिंगारी” ऊर्जा, प्रेरणा, चेतना या विचार की आग की प्रतीक है और ज्योति संकल्प, श्रद्धा व कर्मबल की। जब हम दैवीय शक्ति का आवाहन करके सद्गुणों का विकास करते हैं तो तब भीतर का अग्नि-तत्व स्वतः प्रज्वलित होता है। इसी में दीपावली और लक्ष्मी-गणेश पूजा का अर्थ समाहित है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)