लोक आस्था का महापर्व छठ पर्व अपने चरम पर है। माहौल सर्वत्र भक्तिमय है। इस महापर्व को लेकर कथाएं तो अनेक हैं। पर, आधुनिक युग के लिहाज से सबसे विश्वसनीय कथा यह है कि इस महापर्व ने प्रवासन और आधुनिकीकरण की चुनौतियों के बावजूद, अपनी आस्था की शक्ति से खुद को न केवल बचाए रखा है, बल्कि वैश्विक पहचान बना ली है। साथ ही लाखों लोगों को जड़ों से जोड़े रखकर साझी सांस्कृतिक पहचान प्रदान की है। आने वाले समय में यह महापर्व यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक धरोहर सूची में शामिल हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
सृष्टि के प्रारंभ से ही सूर्योपासना मानव की आंतरिक अभिव्यक्तियों का एक अत्यन्त सहज रूप रही है। छठ पूजा उसी परंपरा का एक रुप है, जो अब आस्था का महापर्व बन चुका है। हालांकि, सामान्य बुद्धि से आस्था के मायने निकालकर हम सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। प्राचीन भारतीय पौराणिक कथाओं में आस्था को न केवल एक भावनात्मक आधार के रूप में, बल्कि एक ऐसी ऊर्जा के रूप में चित्रित किया गया है, जो असंभव को संभव बना देती है। योग शास्त्र, आधुनिक न्यूरोसाइंस, और आध्यात्मिक परंपराओं में हृदय चक्र को प्रेम, करुणा, विश्वास, समर्पण और भक्ति का केंद्र माना गया है। ये सभी आस्था के मूल तत्व हैं। हम जानते हैं कि बिना विवेक के आस्था अंधी और खतरनाक हो सकती है। लेकिन छठ महापर्व को लेकर हमारे मन में विवेकपूर्ण आस्था होती है। तभी व्रतियों की आस्था नाना रुपों में श्रेष्ठ परिणाम देती है।
छठ पर्व को लेकर जो पौराणिक कथा प्रचलित है, उसका अर्थ भी कुछ ऐसा ही है। स्वयंभु मनु के पुत्र राजा प्रियवंद संतानहीन थे। स्वार्थपूर्ण कामना की प्रबलता से मलिन हुई आस्था के कारण पुत्रेष्टि यज्ञ भी निष्फल गया और मृत शिशु का जन्म हुआ। पर, प्रारब्ध फल ऐसा कि पुत्र-वियोग प्रबल होते ही विवेक बुद्धि की प्रतीक और भगवान कार्तिकेय की पत्नी देवसेना यानी षष्ठी देवी प्रकट हो गईं। उन्होंने पूरी आस्था से सूर्योपासना करने का सुझाव दिया। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, षष्ठी देवी संतान रक्षा की अधिष्ठात्री देवी हैं। सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण उन्हें षष्ठी देवी कहा गया और सूर्य की उपासना से ही उनकी कृपा प्राप्त होती है। राजा-रानी ने षष्ठी देवी कहे मुताबिक सूर्यदेव के साथ ही उनकी भी आराधना के लिए व्रत किया। परिणाम स्वरुप स्वस्थ शिशु का जन्म हुआ था। चूंकि राजा-रानी ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को व्रत किया था। इसलिए उसी दिन छठ पूजा करने का प्रचलन हो गया। इस कथा का संदेश है कि मन-बुद्धि आधारित कार्य निष्फल हो जाता है। लेकिन कोई आस्थावान व्यक्ति विवेक-बुद्धि आधारित कार्य करता है तो सफलता मिलती है।
वैदिक ग्रंथों में जगह-जगह सूर्य की महिमा गायी गई है। यजुर्वेद (8.40) के मुताबिक, “हे प्रकाशमान सूर्य! आप सभी देवों में देदीप्यमान आप हैं। आपकी उपासना से मैं भी मनुष्यों में सबसे तेजस्वी बनूँ।“ यह मंत्र केवल सूर्य की स्तुति नहीं, बल्कि मानव आत्मा के तेजोमय होने की आकांक्षा का घोष है। वेद में उदयगामी ही नहीं, बल्कि अस्ताचलगामी सूर्य की आराधाना के भी प्रमाण हैं। यजुर्वेद (37.1) में कहा गया है, “हे सूर्य! तेरी किरणें जब अस्त होती हैं, तब भी वे नष्ट नहीं होतीं; वे पुनः उदय होकर हमारी सखी बन जाती हैं। तू ही इस विश्व का आधार है।” सच तो यह है कि सभी वैदिक प्रमाणों में अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना को जीवन-चक्र की सततता का प्रतीक माना गया है, जो जीवन-चक्र की निरंतरता, मृत्यु-पुनर्जन्म, कर्म-समर्पण और प्रकृति से एकता का संदेश देता है। देश-काल के मुताबिक सूर्य की आराधना का स्वरुप बदलता गया। द्रौपदी, कर्ण आदि द्वारा छठ पूजा जैसी ही आराधना इसका प्रमाण है। पर, बिहार के मिथिलांचल की लोक परंपरा में सीता माता को प्रथम छठ व्रती माना जाता है। स्पष्ट है कि छठ पूजा के दौरान उदयगामी सूर्य और अस्ताचलगामी सूर्य की आराधना वैदिक विधान से ही प्रेरित है।
छठ पूजा का एक-एक गीत आध्यात्मिक दृष्टिकोण से अर्थपूर्ण है। जैसे, “नरियलवा जे फरेला धवद से, ओह पर सुगा मिडराए……” छठ पूजा की शुद्धता बताने वाला लोकप्रिय गीत है। इस गीत का भाव यह है कि छठ व्रती सूर्य देव की उपासना में लीन है। वह नैवेद्य की शुद्धता को लेकर बेहद सतर्क है। तभी एक सुग्गा आता है और नैवेद्य के पास मंडराने लगता है। यह देखकर व्रती को गुस्सा आ जाता है। नतीजतन, वह क्रोधित हो जाती है और मन में विचार आता है कि तोते को धनुष से मूर्छित कर देना चाहिए और विचार मात्र से तोता मूर्छित होकर गिर पड़ता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से मन के ऐसे विचार को तमोगुणी माना गया है। खैर, सुगनी मूर्छित पति को देखते हुए विलाप करने लगती है। तब व्रती का हृदय पिघल जाता है। सत्वगुण प्रबल होते ही क्रोध, पश्चाताप और करुणा में बदल जाता है। वह सूर्य देव से प्रार्थना करती है और उनकी कृपा से तोता फिर से जीवित हो जाता है। यह कथा हमें जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है। यह बताती है कि आध्यात्मिक जीवन केवल नियमों और अनुष्ठानों में निहित नहीं है, बल्कि एक सजग यात्रा है, जिसमें आत्म-निरीक्षण, आत्म-संयम और दूसरे प्राणियों के प्रति संवेदनशीलता का निरंतर अभ्यास आवश्यक है। सच्चा व्रत वही है, जिसके फलस्वरुप मन का मैल मिटे और हृदय में प्रेम का प्रकटीकरण हो जाए।
एक बात और। पानी में खड़े होकर अर्ध्य क्यों दिया जाता है? विष्णु सहस्त्रनाम में विष्णु का एक नाम वरुण है और अस्ताचलगामी सूर्य को भी वरुण कहा गया है। लोक मान्यता के मुताबिक, भगवान विष्णु सूर्य ग्रह के देवता हैं और वे कार्तिक मास के दौरान जल में निवास करते हैं। इसलिए पानी में खड़े होकर अर्ध्य देने से भगवान विष्णु और सूर्यदेव दोनों की ही पूजा एक साथ हो जाती है। सच कहिए तो छठ महापर्व का संदेश इतना व्यापक हैं कि इसकी महत्ता की व्याख्या नाना रुपों में की जा सकती है। पर, आधुनिक युग में इसका केंद्रीय संदेश डूबते सूर्य से जुड़ा है। दुनिया उगते सूरज को नमस्कार करती है। लेकिन जगत में वैदिक ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला भारत डूबते सूरज का भी सम्मान करना सिखाता है। यह संदेश न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक स्तर पर व्यापक है और सबके लिए वंदनीय हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)

