मन का उपद्रव किस तरह खत्म हो कि शांति मिले? दुनिया भर के लिए यह सवाल यक्ष प्रश्न की तरह है। माता पार्वती ने आदियोगी शिव जी से कुछ ऐसा ही सवाल किया था तो शिव जी ने एक सरल उपाय बता दिया था – “दृष्टि को दोनों भौंहों के मध्य स्थिर कर चिदाकाश में ध्यान करें। मन शांत होगा, त्रिनेत्र जागृत हो जाएगा।“ पर बात इतनी सीधी न थी। लिहाजा, सवाल दर सवाल खड़े होते गए। नतीजा हुआ कि आदियोगी शिव को कुल एक सौ बारह तरीके बतलाने पड़ गए थे।
कुरूक्षेत्र के मैदान में अर्जुन के सामने भी कुछ ऐसी ही समस्या उत्पन्न हुई थी। तब उन्होंने कृष्ण से सवाल किया था – “हे कृष्ण ! यह मन बड़ा चंचल है, प्रमथन स्वभाव वाला है और बड़ा ही दृढ़ व बलवान है। इसलिए इसे वश में करना वायु की तरह अति दुष्कर मानता हूं।“ प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं – “हे महाबाहो! नि:संदेह मन चंचल औऱ कठिनता से वश में होने वाला है। पर हे कुंती पुत्र अर्जुन, अभ्यास यानी बारंबार यत्न करने से यह वश में हो जाता है।“ हम जानते हैं कि भारत के संत-महात्माओं का इस सत्य से साक्षात्कार होता रहा है। तभी पूर्व मध्यकाल में संत कबीर ने बड़ी सरलता से कह दिया था – “मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया।“ यानी वे मन का मालिक बन गए और हो गया चित्त वृत्तियों का निरोध।
महर्षि पतंजलि के योग सूत्रों में दूसरा ही सूत्र है – योगश्चित्तवृत्ति निरोध:। यानी चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। चित्त वैयक्तिक चेतना को कहा गया है, जिसके कई आयाम हैं। मांडुक्य उपनिषद में चेतना के चार आयामों का बेहतरीन वर्णन है। पर संतों और योगियों की बात अलग है। आम आदमी के मामले में ऐसी साधनाएं कैसे फलीभूत हों? मौजूदा हालात में आम आदमी जिन मानसिक यंत्रणाओं के दौर से गुजर रहा है, उसके लिए सजगता का विकास करना ही मुश्किल है। सजगता के विकास के लिए प्रत्याहार की सरल पर विज्ञानसम्मत विधि है योगनिद्रा। योग शिक्षक के रिकार्डेड निर्देश के आधार पर शवासन में मानसिक क्रियाएं करते जाना होता है। पर यह अभ्यास भी नहीं सध पाता। तुरंत ही नींद आ जाती है और यह योग विधि नींद की दवा बनकर रह जाती है। ऐसे में मन की एकाग्रता के लिए कोई भी योग विधि कैसे फलित हो? और जब मन एकाग्र ही न होगा तो ध्यान कैसे घटित होगा? इसलिए मन का उपद्रव कहर बरपाते रहता है और उससे निबटने का सवाल आम आदमी के लिए यक्ष प्रश्न जैसा बना रहता है।
संकटकाल में ऐसी समस्या पहले भी उत्पन्न होती रही है। बीसवीं सदी के महानतम संत स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “यदि साधक जीवन से थका है, चिंता-ग्रस्त है, उसके मस्तिष्क में या तो रकतप्रवाह ज्यादा है या कम है, हृदय में धड़कनें उठती हैं, पेट में वायु है और शरीर में रक्त संचार नियमित नहीं है तो उस अवस्था में उसे आलोक की प्राप्ति नहीं हो सकती है। चाहे उसे ध्यान की अच्छी से अच्छी विधि क्यों न मालूम हो। गुरू भी अच्छे हो सकते हैं और साधक भी। पर आलोक नहीं मिलेगा।“ परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती कहते हैं – “मानसिक उपद्रवों को दूर करने में दवाएं भी कारगर नहीं हैं। दुनिया में जितनी भी दवाएं हैं, उनमें सत्तर फीसदी दवाएं मनुष्य को तनाव-मुक्त करने के लिए होती हैं। ताकि वह अच्छी नींद सो सके। पर ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढता गया वाली कहावत चरितार्थ होती रहती है।“ हाल ही यह बात प्रमाणित भी हुई। वृहन मुंबई नगर निगम ने मानसिक स्वास्थ्य के लिए काम करने वाले संगठन एम पावर के साथ कोरोनाकाल में अवसादग्रस्त लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए हेल्पलाइन शुरू किया था। यह संकटग्रस्त लोगों को इतना भाया कि देश भर के लोग मदद के लिए लाइन में लग गए।
फिर उपाय क्या है? एक कारगर उपाय सत्यानंद योग या बिहार योग में है। इस योग के प्रवर्तक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने एक नई योग विधि विकसित करके सजगता और एकाग्रता के मार्ग में बाधक तत्वों से निबटने की काट निकाली थी। उसे अंतर्मौन नाम दिया गया था। जिस तरह आंतों की सफाई के लिए शंखप्रक्षालन श्रेष्ठ है। उसी तरह आत्म-शुद्धि और चित्त-शुद्धि के लिए अंतर्मौन है। अंतर्मौन अजपा जप जैसी शक्तिशाली योग विधि को साधने के लिए भी कारगर है।
अजपा जप पर देश-विदेश में हुए वैज्ञानिक अध्ययनों से परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती की इस अनुभूति को मान्यता मिली कि यह योग विधि यदि नींद नहीं आती तो ट्रेन्क्विलाइज है। दिल की बीमारी है तो कोरेमिन है। सिर दर्द है तो एनासिन है। अमेरिका के हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ हर्बर्ट बेंसन मानव चेतना पर दुनिया भर में स्वीकार्य शोधों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी पुस्तक “योर मैक्सिमम माइंड” मस्तिष्क की वैद्युतीय गतिविधि को लेकर भारत के वैज्ञानिक संतों की राय से मेल खाती हुई है। शोध पर आधारित इस पुस्तक में कहा गया है कि कुछ विशिष्ट प्रकार के ध्यान से मस्तिष्क के बाएं और दाएं गोलार्द्धों के बीच वैद्युतीय गतिविधि समन्वित हो जाती है। लेखक ने इस पुस्तक में भले ध्यान शब्द का प्रयोग किया है। पर जो विधि बतलाई वह अंतर्मौन या विपश्यना से मिलती-जुलती है।
यह योगसम्मत बात है कि अंतर्मन में धूल की तरह बैठे हुए संस्कार हमारे जीवन को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। ऐसा मन में विचारों के बीच संघर्ष के कारण होता है। आजमाई हुई बात है कि जब ऐसी मन:स्थिति वाला व्यक्ति किसी आरामदायक आसन में बैठकर आंखें बंद कर लेता है और मन की एकाग्रता की परवाह किए बिना अपने शरीर के प्रति सजग हो जाता है तो साधनाक्रम में अवचेतन से नाता जुड़ता है। नतीजतन, दमित विचार स्वप्न के रूप में सतह पर आने लगते हैं। यह अंतर्मौन का शुरूआती परिणाम होता है। मानसिक रूप से मन की इन हरकतों को निरपेक्ष भाव से देखते जाने से अवचेतन के संस्कारों का क्षय होने लगता है। आशांति दूर होती है। अंत:करण शुद्ध होता। मानसिक एकाग्रता के लिए धारणा और फिर ध्यान का राजमार्ग तैयार होता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)