आपके मन में यह सवाल जरूर होगा कि आखिर इस तरह की बात क्यों की जा रही है। हम सभी जानते हैं कि नेशनल लॉकडाउन के कारण सर्वत्र लाइव योग सत्रों की धूम है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के योग संस्थानों से लेकर शहर और मुह्ल्ले तक के योगाचार्यों और योग प्रशिक्षकों की ओर से लाइव योग सत्र आयोजित किए जा रहे हैं। योगाभ्यासियों को ऐसी सुविधा पहले कभी नहीं थी। संकटकाल में योग संस्थानों, योगाचार्यों और योग प्रशिक्षकों का यह बहुमूल्य योगदान है। पर इसका दूसरा पक्ष डरावना है। अनेक स्तरों पर गुणवत्तापूर्ण योग प्रशिक्षण का अभाव स्पष्ट रूप से दिख रहा है। सोशल मीडिया पर लाइव होने वाले योग प्रशिक्षकों को आमतौर पर विभिन्न प्रकार के आसनों व प्राणायामों के लाभों की ही चर्चा करते देखा जाता है। वे जोखिमों की चर्चा या तो नहीं करते या चलते-चलाते करते हैं। योग के क्रमिक अभ्यासों के मामले में भी समझौता किया जाता है। एक दृष्टांत से इस बात को समझा जा सकता है।
विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई दो सौ योग शिक्षकों का इंटरव्यू हुआ तो हैरान करने वाली बात यह हुई कि मात्र पांच योग शिक्षक ही ऐसे थे जो मानदंड के अनुरूप थे। यानी वे कठिन आसनों के साथ ही अच्छे प्रकार से योग की कक्षा ले सकते थे। अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद की शासकीय परिषद के सदस्य डॉ. वरुण वीर ने इस बात का खुलासा किया तो योग विद्या के मर्म को समझने वालों के चेहरे पर बल पड़ जाना स्वाभाविक था। दरअसल डॉ वीर ने खुद ही इन योग शिक्षकों का इंटरव्यू लिया था। ऐसी स्थिति इसलिए बनी कि कायदा-कानूनों को ताक पर रखकर चलाए जाने वाले योग प्रशिक्षण संस्थानों से दो-चार महीनों का प्रशिक्षण लेने वाले योग प्रशिक्षक बन बैठे थे। आम जनता में योग के प्रति जाकरूकता की कमी का लाभ उन्हें मिल रहा था। वाणिज्यिक मानकों पर कसा गया तो असलियत सामने आ गई थी।
केंद्र सरकार ने आयुष मंत्रालय के जरिए सूरत को बदलने की कोशिश की है। योगाचार्यों या योग प्रशिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए सन् 2018 में योग सर्टिफिकेशन बोर्ड बनाया गया। इसकी परीक्षा का स्वरूप नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट के छोटे भाई की तरह है। नए और पुराने सभी योग प्रशिक्षक या शिक्षक बोर्ड की परीक्षा देकर प्रमाण-पत्र हासिल कर सकते हैं। योग संस्थानों का प्रमाणन भी किया जा रहा है। हालांकि यह काम प्राथमिक स्तर का है। आयुष मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक अब तक कुल 9796 योग शिक्षकों और प्रशिक्षकों को बोर्ड से प्रमाणित किया जा चुका हैं। पर प्रैक्टिश करने वाले योग प्रशिक्षकों और शिक्षकों की संख्या तो कई गुणा ज्यादा है। जाहिर है कि गुणवत्तापूर्ण योग का प्रचार-प्रसार और प्रशिक्षण अभी भी दूर की कौड़ी है।
हठयोग के प्रतिपादकों महर्षि घेरंड और महर्षि स्वात्माराम के साथ ही देश के प्रख्यात योगियों के शोध प्रबंधों पर गौर फरमाएं और योगाभ्यास करते लोगों को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि योगकर्म में कैसी-कैसी गलतियां की जा रही हैं। मसलन, हठयोग में सबसे पहला है षट्कर्म। इसके बाद का क्रम है – आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान। यदि कोई योगाभ्यासी षट्कर्म की कुछ जरूरी क्रियाएं भी नहीं करता तो आगे के योगाभ्यासों में बाधा आएगी या अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेंगे। इसी तरह प्राणायाम का अभ्यास किए बिना प्रत्याहार व धारणा के अभ्यासों से अपेक्षित लाभ नहीं मिलेगा। ऐसे में ध्यान लगने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हठयोग के बाद राजयोग की बारी आती है, जिसका प्रतिपादन महर्षि पतंजलि ने किया था। उसमें खासतौर से आसनों का नियम बदल जाता है। पर व्यवहार रूप में देखा जाता है कि अनेक योग प्रशिक्षक हठयोग के अभ्यासक्रम को तो बदलते ही हैं, राजयोग के साथ घालमेल भी कर देते हैं। जबकि हठयोग में गयात्मक अभ्यास होते हैं और राजयोग में इसके विपरीत। जहां तक सावधानियों की बात है तो धनुरासन को ही ले लीजिए। यह भुजंगासन और शलभासन से मेल खाता हुआ आसन है। इन तीनों में कई समानताएं हैं। लाभ के स्तर पर भी और सावधानियों के स्तर पर भी। इस आसन से जब मेरूदंड लचीला होता है तो तंत्रिका तंत्र का व्यवधान दूर हो जाता है। पर हृदय रोगी, उच्च रक्तचाप के रोगी, हार्निया, कोलाइटिस और अल्सर के रोगियों के लिए यह आसन वर्जित है।
प्राणायामों के बारे में योग शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि इसे आसनों के बाद और शुद्धि क्रियाएं करके किया जाना चाहिए। पहले नाड़ी शोधन फिर कपालभाति और अंत में भस्त्रिका का अभ्यास किया जाना चाहिए। नाड़ी शोधन के लिए भी शर्त है। यदि सिर में दर्द हो या किन्हीं अन्य कारणों से मन बेचैन हो तो वैसे में यह अभ्यास कष्ट बढ़ा देगा। उसी तरह हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मिर्गी, हर्निया और अल्सर के मरीज यदि कपालभाति करेंगे तो हानि हो जाएगी। जिनके फुप्फुस कमजोर हों, उच्च या निम्न रक्त दबाव रहता हो, कान में संक्रमण हो, उन्हें भस्त्रिका प्राणायाम से दूर रहना चाहिए। हृदय रोगियों को तो भ्रामरी प्राणायाम में भी सावधानी बरतनी होती है। उन्हें बिना कुंभक के यह अभ्यास करने की सलाह दी जाती है।
पर इन तमाम योग विधियों और उनसे संबंधित सावधानियों की अवहेलना हर तरफ देखी जा सकती है। यदि योग प्रशिक्षकों की गुणवत्ता का सवाल न होता तो मौजूदा संकट के समय योगाचार्यों के श्रम और योग की शक्ति से राष्ट्र को कई गुणा ज्यादा लाभ हो रहा होता। बहरहाल, उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए योगाभ्यासियों को भी सतर्क रहने की जरूरत है। रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए योग की क्रियाओं को किसी भी तरह कर लेने से बात बनने वाली नहीं। तमाम परिश्रम पर पानी फिर जा सकता है। दांव उल्टा पड़ जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)