दुनिया भर में योग की बढ़ती स्वीकार्यता की वजह से धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा खड़ी की गई मजहब की दीवारें गिर रही हैं। विभिन्न प्रकार के शारीरिक औऱ मानसिक संकटों से जूझते लोगों के जीवन में योग चमत्कार पैदा करता है तो उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई नहीं होती कि योग विज्ञान है और इसका किसी मजहब ले लेना-देना नहीं है। यही वजह है कि इस्लामिक देशों में भी सूर्य नमस्कार योग को लेकर पहले जैसा आग्रह नहीं रहा।
भारत में भी ऐसे योगाभ्यासियों की तादाद तेजी से बढ़ी है, जो योग को धर्मिक कर्मकांडों का हिस्सा या धर्म विशेष का अंग मानकर उससे दूरी बनाए हुए थे। ऐसे लोग बिना किसी आग्रह-पूर्वाग्रह के अपनी काया को स्वस्थ्य रखने के लिए योग की किसी भी विधि को अपने से परहेज नहीं कर रहे हैं। बीते सप्ताह उत्तराखंड में ऐतिहासिक काम हुआ। कोटद्वार के कण्वाश्रम स्थित वैदिक आश्रम गुरुकुल महाविद्यालय में 20 से 24 नवंबर तक विश्व का संभवत: पहला मुस्लिम योग साधना शिविर आयोजित किया गया था। यह सुखद अनुभव रहा कि शिविर में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों ने भाग लिया। शिविर में दूसरे धर्मों के लोगों ने भी हिस्सा लिया। योगीराज ब्रह्मचारी डा. विश्वपाल जयंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में मुस्लिम समुदाय समेत सभी समुदाय के साधकों को बज्रासन, शशंकासन, शेरासन, कष्ठासन, बज्रासन और मयूर पद्मासन का अभ्यास कराया।
वडोदरा का तदबीर फाउंडेशन योग को लेकर खासतौर से मुस्लिम महिलाओं का मिजाज बदलने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। इसके प्रशिक्षक कुरान के आयतों के उच्चारण के साथ योगाभ्यास कराते हैं। रांची की राफिया नाज की संस्था “योगा बिआण्ड रिलीजन” (वाईबीआर) अब तक पांच हजार से ज्यादा छात्राओं को योग में प्रशिक्षित कर चकी है। बकौल राफिया शुरू में उन्हें भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। पर लोगों को बात समझ में आती गई तो बाधाएं भी दूर होती गईं।
जिस पाकिस्तान में लंबे समय तक योग के लिए दरवाजा बंद था, वहां भी चीजें तेजी से बदली हैं। योग के वैश्विक बाजार से आकर्षित पाकिस्तानी योग गुरू जब योग की व्याख्या करके उसे शारीरिक पीड़ा से ग्रस्त लोगों तक ले गए और इसके लाभ महसूस किए जाने लगे तो तीन-चार सालों के भीतर तस्वीर पूरी तरह बदलती दिख रही है। वरना सबको याद ही है कि इस्लामाबाद में 10 मार्च 2015 को आर्ट ऑफ लिविंग केंद्र को आग के हवाले कर दिया गया था। तब इसका किसी ने विरोध तक नहीं किया था। लोगों को योग से इतना नफरत था।
अब पाकिस्तान में योग के विरोध की बात तो छोड़ ही दीजिए, विवाद इस बात को लेकर है कि योग मूल रूप से हिंदुस्तान का है या पाकिस्तान का। पाकिस्तान के एक चर्चित योग गुरू शमशाद हैदर ने यह कहकर नया विवाद को जन्म दिया है कि महर्षि पतंजलि पर भारतीयों का दावा सही नहीं है। इसलिए कि महर्षि पतंजलि का ताल्लुकात मुल्तान से था और मुल्तान पाकिस्तान में है। हालांकि उनका यह दावा निरर्थक ही है। इसलिए कि जब महर्षि पजंजलि जन्में थे तब पाकिस्तान कहां था? खैर, लोगों में योग की स्वीकार्यता दिलाने के लिए मार्केटिंग का यह तरीका भी चलेगा। वह इस तर्क के साथ ही यह बात मजबूती से रखते हैं कि योग को किसी मजहब से जोड़कर देखना उचित नहीं। यह शरीर का विज्ञान है।
दुनिया भर में बदलती जीवन-शैली के कारण तबाही के कगार पड़ी पर खड़ी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए लोग योग को तेजी से अपना रहे हैं। उसी का नतीजा है कि एक तरफ शमशाद हैदर जैसे योग गुरूओं को मानने वालों की फौज बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर डॉ जाकिर नाईक जैसे धर्म गुरूओं और मलेशियाई फतवा परिषद से लेकर सांसद असदुद्दीन ओवैसी की अपीलें तक युवाओं के लिए बेमतलब साबित हो रही हैं। योग-शक्ति का कमाल देखिए कि पाकिस्तान ही नहीं, अन्य इस्लामिक देशों में भी योग को लेकर भ्रांतियां दूर हो रही हैं। फिलिस्तीन, मलेशिया और इंडोनेशिया नित नए योग केंद्र खुल रहे हैं। ईरान जैसे मुस्लिम गणतंत्र में योग फेडरेशन बना हुआ है, जिसके कार्यक्रमों में प्रत्येक आसन के फायदों पर चर्चा की जाती है।
आखिर अचानक आए इस बदलाव की वजह क्या है? केंद्रीय आयुष मंत्री श्रीपाद येसो नाईक कहते हैं, “योग विज्ञान है। इसका किसी धर्म से वास्ता नहीं है। पूर्ववर्ती सरकारों ने योग को लेकर फैली भ्रांतियां दूर करने की कभी कोशिश ही नहीं की। हम सब ने अल्पसंख्यकों को समझाया कि सूर्य नमस्कार आसन का नाम है। इसका सूर्य से कोई संबंध नहीं है। यदि योग करने में ओम् का उच्चारण आड़े आता हो तो उसकी जगह अल्लाह का नाम ले लें। इन बातों का असर हुआ। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर योग दिवस मनाने संबंधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव को संयुक्त राष्ट्र संघ में दुनिया भर से समर्थन मिलना इस बात का परिचायक है कि योग को लेकर फैलाई गईं भ्रांतियां काफी हद तक दूर हुई हैं।“
अपनी मान्यता है कि विभिन्न धर्मों के ठेकेदारों ने निहित स्वार्थों के लिए योग विज्ञान की गलत व्याख्या कर दी। इससे कालांतर में इसका अर्थ बदल गया। अब चीजें दुरूस्त करने के लिए विज्ञान का सहारा लेना पड़ रहा है। तभी हमें जब आज के वैज्ञानिक बताते हैं कि अमुक योग से इस तरह के फायदे होते हैं, तब हमें भरोसा होता है कि योग विज्ञान है और इसका किसी धर्म से वास्ता नहीं है। मैंने बीते सप्ताह ही इस कॉलम में वैज्ञानिक स्थापना के आधार पर लिखा था कि हमारे मस्तिष्क के भीतर चार प्रकार की तरंगें – बीटा, अल्फा, थीटा औऱ डेल्टा उत्पन्न होती हैं, जिन्हें ईईडी के जरिए देखा जा सकता है। मानव जब उत्तेजित होता है तो बीटा तरंग की प्रधानता रहती है। शांति मिलने पर अल्फा तरंग पैदा होता है। योगनिद्रा की अवस्था या अन्य तरीकों से जब मन एकाग्र होता है तो मस्तिष्क में डेल्टा औऱ थीटा तरंगों का आदान-प्रदान होता है। यह योग का विज्ञान ही तो है। इस क्रिया का धर्म से क्या वास्ता?
आधुनिक काल में योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान के अग्रदूत स्वामी कुवल्यानंद ने तो 1920 में ही योग पर वैज्ञानिक अनुसंधान प्रारम्भ कर दिया था। इसके चार साल बाद उन्होने कैवल्यधाम स्वास्थ्य एवं योग अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की थी, जहाँ योग पर उनका अधिकांश अनुसंधान हुआ। उन अनुसंधानों से साबित होता गया कि योग पर प्रचीनकाल की स्थापना बिल्कुल सही थी। बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने साठ के दशक में कहा था कि योग विज्ञान है। इसका किसी भी धर्म से कोई वास्ता नहीं। तंत्र, जिसके द्वारा योग विकसित हुआ, उन वेदों से भी अधिक पुरानी पद्धति है, जिसके द्वारा हिंदू धर्म की उत्पत्ति और विकास हो सका है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि योग हिंदू धर्म से अधिक प्राचीन है।
पर इन तमाम उदाहरणों के बावजूद योग को लेकर अंधविश्वास की परतें इतनी मोटी हो चुकी हैं कि उन्हें हटाने के लिए बड़ी मशक्कतें करनी पड़ रही है। जो लोग अब भी योग को धर्म के दायरे में देखते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि 11वीं सदी में फ़ारसी विद्वान लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक अल-बरुनी ने पतंजलि के योग-सूत्र का अरबी में अनुवाद करके उसे दुनिया भर में प्रचारित किया था। खुद महर्षि पतंजलि ने भी योग का प्रयोजन “योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:” बताया था। यानी चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। उन्होंने किसी देवी-देवता की बात नहीं की थी।
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योग की बढ़ती स्वीकार्यता और कमजोर होती मजहबी दीवारें
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