तमिलनाडु के त्रिचि में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं।
युवाओं और विद्यार्थियों के लिए श्रीमद्भगवद् गीता की महत्ता के बारे में तो हमारे वैज्ञानिक संत सदियों से बतलाते रहे हैं। आधुनिक युग में विज्ञान भी विभिन्न प्रयोगों के जरिए इस निष्कर्ष पर है कि तेजी से अवसाद के शिकंजे में फंसती युवापीढ़ी को श्रीमद्भगवद् गीता का ज्ञान ही उस भंवर से निकालने में सक्षम है। ऐसे में दक्षिण के महान आध्यात्मिक नेता स्वामी चिद्भवानंद जी का युवाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया श्रीमद्भगवद् गीता का भाष्य समयानुकूल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस भाष्य के किंडल संस्करण का लोकापर्ण करते हुए ठीक ही कहा कि महाभारतकालीन स्थितियां और परिस्थितियां भले भिन्न थीं। पर परिणाम एक जैसे हैं। मानवता संघर्षों और चुनौतियों का सामना कर रही है। ऐसे समय में श्रीमद्भगवद् गीता में दिखाया गया मार्ग प्रासंगिक हो जाता है।
तमिलनाडु के त्रिचि जिले में मशहूर रामकृष्ण तपोवनम् आश्रम और विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक रहे स्वामी चिद्भवानंद जी ने जीवन पर्यंत स्वामी विवेकानंद से प्रेरित होकर जितने श्रेष्ठ कार्य किए, उनसे दुनिया के कोने-कोने में लोगों को प्रेरणा मिली। वे तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में सन् 1898 में जन्मे थे और सन् 1985 में अपना भौतिक शरीर त्याग दिया था। कर्मयोगी थे। अपने गुरू स्वामी शिवानंद की प्रेरणा से तमिलों को वैदिक ज्ञान से अवगत कराने और राज्य के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए अतुलनीय कार्य किया था। तमिलनाडु में आज भी उनके 18 आश्रमों के जरिए 80 शिक्षण संस्थानों का संचालन किया जाता है। उन्होंने अपने जीवन-काल में वैसे तो 186 आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं। पर श्रीमद्भगवत गीता पर उनके कार्य उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अलग-अलग परिस्थितियों और अलग-अलग उम्र के लोगों को ध्यान में रखकर श्रीमद्भगवत गीता का बेहद शक्तिशाली भाष्य लिखा।
किंडल फार्मेट में जारी किए गए श्रीमद्भगवत गीता में बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है कि जब जीवन का पथ काले घने बादलों से अदृश्य-सा प्रतीत हो रहा होता है तब भी जीवन में नई ऊर्जा के संचार के तत्व मौजूद होते हैं और उन्हें आत्मसात करके भवसागर को पार किया जा सकता है। श्रीमद्भगवत गीता के आलोक में उनकी यह बात संदेह से परे है। कल्पना कीजिए यदि अर्जुन को रणभूमि में विषाद न हुआ होता तो शक्तिशाली गीता का ज्ञान मिला होता, जो उसे ही नहीं, बल्कि सदियों से मानव जाति की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। सच कहिए तो श्रीमद्भगवत गीता ब्रह्म-विद्या और योग शास्त्र-सिद्धांत दोनों ही है। यह महज ग्रंथ नहीं, बल्कि मनुष्य के नित्य जीवन को व्यवस्थित करने वाला पथ-प्रदर्शिका है। इसका मार्ग सरल है। हर उम्र, हर वर्ग के लोगों के लिए सहज ग्राह्य है। इसलिए इससे प्रेरणा लेकर कर्मयोग के जरिए चित्त-शुद्धि का द्वार खोला जाना चाहिए। जीवन के सारे बंद दरवाजे स्वत: खुलने लगेंगे।
पश्चिमी दुनिया में योग के पितामह माने जाने वाले परमहंस योगानंद ने कोई एक सौ साल पहले आज जैसी परिस्थितियों के शिकार युवाओं को संबोधित करते हुए साफ-साफ कहा था कि विकल्प नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को कुरूक्षेत्र की अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी है। यह युद्ध मात्र जीतने के योग्य ही नहीं, अपितु विश्व के दिव्य नियम और आत्मा व परमात्मा के शाश्वत संबंध में है। यह एक ऐसा युद्ध है, जिसे कभी तो जीतना ही होगा। श्रीमदभगवत् गीता में इस जीत की शीघ्रतम प्राप्ति उस भक्त के लिए सुनिश्चित की गई है जो बिना हतोत्साहित हुए ध्यान-योग के दिव्य विज्ञान के अभ्यास द्वारा परमात्मा के भीतरी ज्ञान-गीत को अर्जुन की भांति सुनना सीखता है।
पर मन में उपद्रव है तो स्थितप्रज्ञ कैसे हुआ जा सकता है? और यदि ऐसी स्थिति पाना संभव न हो तो धारणा और ध्यान का अभ्यास कैसे फलित होगा? इस संदर्भ में प्रश्नोपनिषद् का एक प्रसंग ध्यान देने योग्य है। कात्यायन ऋषि के प्रपौत्र कबंधी महर्षि पिप्पलाद के समक्ष इस विश्वास के साथ गए थे कि वे उनके मार्ग की तमाम बाधाएं दूर कर देंगे। पर उन्होंने महर्षि पतंजलि की भाषा में कहें तो पहले यम और नियम का पालन करने का आदेश देते हुए कहा कि इसके बिना उनके सवाल का जबाव नहीं मिल पाएगा। परमहंस स्वामी निरंजनानंद सरस्वती ने इस बात को बड़े ही सुंदर तरीके से समझाया है। वे कहते हैं कि यम – नियम योग का आधार है और कर्मयोग गीता का महान संदेश। विक्षिप्त और बिखरावपूर्ण मानसिकता को कर्मयोग के अभ्यास के जरिए ही अवक्रमित किया जा सकता है। पर इसके पहले हमें अपनी ऊर्जा को संतुलित करना होगा। अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को व्यवस्थित करना होगा। साथ ही अपने ऊपर थोड़ा संयम का अंकुश रखना होगा। ऐसी स्थितियों को प्राप्त करना यम-नियम का पालन करके ही संभव है। कर्मयोग भी तभी फलित होगा।
यह निर्विवाद है कि कर्मयोग जीवन पद्धति बन जाने पर आदमी बहुत हद तक सुख-दु:ख में समभाव बना रहता है। इससे चेतना का बेहतर विकास होता है। यदि संस्कारों का क्षय हुआ तो चमत्कार भी हो जाता है। इसे इस तरह समझिए। चैतन्य महाप्रभु दक्षिण में तीर्थ-यात्रा पर थे तो देखा कि एक आदमी गीता पढ़ रहा है और पास ही बैठा एक आदमी रोए जा रहा है। उन्होंने रोते हुए व्यक्ति से पूछा,” रो क्यों रहे हो?” उस व्यक्ति ने जो उत्तर दिया, वह असामान्य था, आंखें खोलने वाला था। उसने कहा, “यह दु:ख के नहीं, सुख के आंसू हैं। मैं देख रहा हूं कि अर्जुन का रथ है। उसके सामने भगवान और अर्जुन खड़े हुए बात कर रहे हैं। भगवान का साक्षात दर्शन हो रहा है।“ शायद इसलिए आध्यात्मिक गुरू कहते रहे हैं कि गीता केवल किताब से नहीं पढ़ी जाती। आसक्ति दूर होने और श्रद्धा की प्रबलता होने पर मन के पार किए गए इशारे, उसके वास्तविक आशय समझ में आने लगते हैं।
स्वामी चिद्भवानंद जी के भाष्य में भी संकटकाल में जीवन में नई ऊर्जा के संचार के लिए कोई न कोई तत्व भी मौजूद रहने की बात का आशय भी योग की इन विधियों को अपना कर भवसागर को पार करने से ही है। उनके भाष्य में अनियंत्रित मन के कुप्रभावों और मन का स्वामी बनने के सरल उपाय सुझाए गए हैं। उस पुस्तक पर मनन और तदनुरूप कर्म अवसादग्रस्त युवाओं खासतौर से विद्यार्थियों का जीवन बदल देने में सक्षम है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)