धीरेंद्र ब्रह्मचारी केंद्रीय विद्यालयों में योग शिक्षकों की बहाली के लिए खुद ही इंटरव्यू ले रहे थे। तभी एक घटना घटित हुई। गेरू वस्त्र में पहुंचे एक अभ्यर्थी से जब सर्टिफिकेट की मांग की गई तो उसने बिहार योग विद्यालय के संस्थापक परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती के साथ की अपनी तस्वीर प्रस्तुत कर दी। वहां उपस्थित अधिकारियों को लगा कि धीरेंद्र ब्रह्चारी अभ्यर्थी के इस व्यवहार से नाराज हो जाएंगे। पर हुआ इसके उलट। धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने बिल्कुल सहज भाव से कहा, “इतने बड़े संत का जिसे सानिध्य मिल चुका है, उसके चयन के लिए कागज के टुकड़े का क्या मोल। आपका चयन किया जाता है। चूंकि सरकारी मामला है। इसलिए बाद में सर्टिफिकेट लाकर दे दीजिएगा।“
यह वाकया नईपीढ़ी के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है। पर इतिहास गवाह है कि एक समय पूरे भारत वर्ष की शिक्षा का पूरी दुनिया में ऐसा ही महत्व था। दुनिया भर के लोग ज्ञान हासिल करने के लिए भारत आते थे। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वल्ल्भी जैसे विश्व स्तरीय शिक्षण संस्थानों के आचार्य प्रमाणित कर देते थे कि अमुक शिक्षार्थी निष्णात हो गया तो हर जगह उसका सम्मान होता था। उसकी बातों को चीन से लेकर कोरिया तक के लोग आंख मूंदकर मान लेते थे। पर परिस्थितियां ऐसी बनती गईं कि अब विश्वास खंडित हो चुका है। आधुनिक भारत में बिहार योग विद्यालय जैसे परंपरागत और शास्त्रसम्मत शिक्षाओं को आत्मसात करके और उसे विज्ञान की कसौटी पर कसकर नईपीढ़ी के बीच ले जाने वाली कितनी संस्थाएं है कि कोई धीरेंद्र ब्रह्मचारी कहेंगे कि फलां संत के शिष्य हो, तो योग्यता प्रमाणित करने के लिए कागज के टुकड़े का कोई मोल नहीं?
स्वामी सत्यानंद सरस्वती तो पांच-छह दशकों से कहते रहे हैं कि योगविद्या भारत वर्ष की सबसे प्राचीन संस्कृति और जीवन-पद्धति रही है और इसके ह्रास के बाद से ही भारतवासी गरीब, दु:खी और अस्वस्थ्य रहने लगे हैं। यह संतोष की बात है कि 21वीं सदी में भारत की बहुमूल्य आध्यात्मिक शक्तियों की पुर्नस्थापना की बात हो रही है। नई शिक्षा नीति इसका प्रमाण है। इसमें विशेष तौर से योग और आध्यात्मिक उत्थान के मामले में वैसी ही बातें है, जैसा स्वामी सत्यानंद सरस्वती बार-बार कहते रहे हैं। योग को स्कूली स्तर पर वैकल्पिक विषय के तौर पर प्रस्तुत गया तो यह विवाद न रहेगा कि इसे स्कूलों में अनिवार्य बनाया जाए या नहीं। प्रथम दृष्टया यही लग रहा है कि कोई योग शिक्षा हासिल करना चाहता है तो चुनाव करने का उसके पास अधिकार होगा। जब इसके लाभ मिलने लगेंगे तो बाकी लोग भी प्रेरित होंगे। पर यदि योग फिजिकल एजुकेशन का हिस्सा रह गया तो शिक्षा नीति की लोकलुभावन बातें, जड़ों की ओर लौटने की बातें कागजों तक सिमट कर रह जाएंगी।
नई शिक्षा नीति के आलोक में योग शिक्षा के कई मामलों स्पष्टता आनी बाकी है। पर शिक्षा नीति के दस्तावेज में जैसा संकल्प दिखाया गया है, वह तभी फलीभूत होगा जब कुछ बुनियादी बातों का ख्याल रखा जाएगा। मसलन, अलग-अलग आयु वर्ग के छात्रों को योग शिक्षा देने के लिए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार किया जाएगा कि बात शारीरिक स्वास्थ्य और शिक्षा तक ही सीमित न रह जाए। बल्कि पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए कि छात्रों की रचनात्मक क्षमताओं में वृद्धि हो। इसके साथ ही इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि योग शिक्षकों का प्रशिक्षण किस तरह से हो कि भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए बच्चों में निहित रचनात्मक क्षमताओं का विकास सही ढंग से हो सके। ऐसा लगता है कि नई शिक्षा नीति में इन बातों को ध्यान में रखा गया है। तभी घोषणा है कि प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में नई शिक्षा नीति बनाई गई है। यह सच है कि ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता था। भारत की शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि पूर्ण आत्मज्ञान और मुक्ति के रूप में हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
हम सभी जानते हैं कि योग जीवन जीने की कला और विज्ञान है। इसका संबंध मन और शरीर के विकास से है। सच कहिए तो योग पूर्ण शिक्षा की एक ऐसी विधि है, जिसका उपयोग सभी बच्चों पर किया जाना चाहिए। ताकि शारीरिक ऊर्जस्विता, भावनात्मक स्थिरता और बौद्धिक व सृजनात्मक प्रतिभाओं का विकास हो सके। इस विषय पर इसी कॉलम में कई बार विस्तार से लिखा जा चुका है। फिर भी संक्षेप में इतना ही बताना काफी होगा कि आठ साल की उम्र से हो योग शिक्षा देने की परंपरा क्यों रही है और विज्ञान की कसौटी पर इसके क्या मायने हैं।
भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य भी केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र सात-आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत करा दी जाती थी। उपनयन संस्कार उसी का हिस्सा होता था। बच्चों को अनिवार्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। वक्त के थपेड़े ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से करानी ही होगी। इससे पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की प्रक्रिया रूक जाएगी या धीमी पड़ जाएगी। इससे जुड़ी पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी। इसका लाभ होगा कि बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी।
हमें इस बात पर गौर करना ही होगा कि छोटे-छोटे बच्चे यौन हिंसा और पशुवत व्यवहार क्यों करने लगते हैं? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाते हैं तो भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है।
इस हॉरमोन का सीधा संबंध यौन परिपक्वता से है। इस पर बड़े-बड़े शोध हुए हैं। देखा गया है कि अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले अंगों का विकास होने लगता है और यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। कामवासन जागृत हो जाती है। यह काम ऐसे समय में होता है, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। लिहाजा वे अपने को संभाल नहीं पातें। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं। अनुसंधानों से पता चला है कि प्राचीन काल में बच्चों के लिए जो योगाभ्यास तय किए गए थे। मौजूदा समय के लिहाज से शांभवी मुद्रा को भी उस सूची में जोड़ लेने की जरूरत है। यानी सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम, शांभवी मुद्रा और गायत्री मंत्र।
योग शिक्षा की महत्ता को देखते हुए गुणवत्तापूर्ण योग शिक्षा सुनिश्चित करना बड़ी चुनौती है। नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की गुणवत्ता पर जरूर चिंता है और तदनुरूप काम करने का संकल्प भी है। पर विशेष तौर से योग शिक्षा के मामले में कई बातें इस बात पर निर्भर होंगी कि पाठ्यक्रम कैसा होगा और पढ़ाने के लिए किस पृष्ठभूमि के योगाचार्य होंगे। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहा करते थे – “योग जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र अथवा रसायन विज्ञान की तरह नहीं सीखा जा सकता। इसकी शिक्षा इस तरह होनी चाहिए कि शरीर, मन और भावनाओं पर सकारात्मक प्रभाव हो सके। पर यह तो तभी संभव है, जब योग शिक्षक के पास अपने छात्रों या योगाभ्यासियों को देने के लिए ज्ञान के साथ ही व्यक्तिगत अनुभव भी हो। साथ ही व्यक्तित्व सुलझा हुआ और संतुलित हो। यदि योग शिक्षक का बेचैन है, मन चंचल है औऱ भावनात्मक उथल-पुथल से त्रस्त है तो आत्माविहीन शिक्षा ही दे सकता है। जिसने योग शिक्षा से खुद शांति का अनुभव नहीं किया, वह गुरू कदापि नहीं हो सकता।“
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और योग विज्ञान विश्लेषक हैं।)