आत्मज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञानों का पिता है। ब्रह्म को जाने बिना चाहे जितना ज्ञान संपादन कर लिया जाय, सब मिथ्या है। उससे तनिक भी सुख और शान्ति उपलब्ध न होगी।
महर्षि उद्दालक
आरुणि का पुत्र श्वेतकेतु चौबीस वर्ष तक गुरु-गृह में रह कर चारों वेदों का पूर्ण
अध्ययन करके घर लौटा, तो उसने मन ही मन विचार किया कि मैं वेद का पूर्ण
ज्ञाता हूँ, मेरे समान कोई पंडित नहीं है, मैं सर्वोपरि विद्वान और बुद्धिमान हूँ। इस प्रकार के विचारों से उसके मन
में गर्व उत्पन्न हो गया और वह उद्धत एवं विनयरहित होकर बिना प्रणाम किये ही पिता
के सामने आकर बैठ गया।
आरुणि ऋषि उसका
नम्रता रहित उद्धत आचरण देख कर जान गये कि इसको वेद के अध्ययन से बड़ा गर्व हो गया
है। तो भी उन्होंने उस अविनय पुत्र पर क्रोध नहीं किया और कहा-हे श्वेतकेतु! तू
ऐसा क्या पढ़ आया है, जिससे अपने को सब से बड़ा पंडित समझता है और इतना
अभिमान में भर गया है। विद्या का स्वरूप तो विनय से खिलता है। अभिमानी पुरुष के
हृदय में सारे गुण तो दूर चले जाते हैं और समस्त दोष अपने आप उसमें आ जाते हैं।
तूने अपने गुरु से यह सीखा हो, तो बता कि ऐसी कौन
सी वस्तु है कि जिस एक के सुनने से बिना विचार की हुई सब वस्तुएँ सुनी जाती हैं,
जिस एक के विचार से बिना विचार की हुई सब वस्तुओं का विचार हो जाता हैं।
जिस एक के ज्ञान से नहीं जानी हुई, सब वस्तुओं का
ज्ञान हो जाता है।”
आरुणि के ऐसे वचन
सुनते ही श्वेतकेतु का गर्व गल गया। उसने सोचा मैं ऐसी किसी वस्तु को नहीं जानता,
मेरा अभिमान मिथ्या हैं। वह नम्र होकर विनय के साथ पिता चरणों पर गिर
पड़ा और हाथ जोड़ कर कहने लगा- भगवान्, जिस एक वस्तु के
श्रवण, विचार और ज्ञान से सम्पूर्ण वस्तुओं का श्रवण,
विचार और ज्ञान हो जाता है, उस वस्तु को मैं
नहीं जानता। आप उस वस्तु का उपदेश कीजिए। आरुणि ने कहा-हे सौम्य ! जैसे कारण रूप
मिट्टी के कार्य रूप घड़ा, बर्तन आदि समस्त
वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है और पता लग जाता है कि घट आदि कार्य रूप वस्तुएं सत्य
नहीं हैं, केवल वाणी के विकार हैं, सत्य
तो केवल मिट्टी ही है। जैसे सोने का ज्ञान होने से आभूषणों का और लोहे का ज्ञान
होने से औजार, हथियार का मर्म समझ में आ जाता है कि आभूषण,
औजार आदि सत्य नहीं हैं, वरन् सोना या लोहा
ही सत्य है, इसी तरह का वह ज्ञान है।
श्वेतकेतु ने
विस्तारपूर्वक उस ज्ञान को वर्णन करने के लिए कहा तो महर्षि आरुणि ने कहा कि हे
सौम्य! सावधान होकर सुन। “आरम्भ में केवल एक ही सत् ब्रह्म था, उसने संकल्प किया कि मैं एक से बहुत हो जाऊँ ओर वह अदृश्य से दृश्य संसार
बन गया। समस्त जगत उस परमात्मा का ही स्वरूप है। हे श्वेतकेतु ! तत्वमसि, वह परमात्मा तू ही हैं। हे सौम्य ! जैसे-जैसे समुद्र का पानी बादल,
वर्षा, नदी आदि में घूमता हुआ पुनः समुद्र में मिल जाता
है, वैसे ही ये जीव भी सत् में से निकल कर नाना
योनियों में घूमते हुए उस सत् में ही मिल जाते हैं। हे पुत्र ! जैसे वृक्ष के
पत्तों को हानि होने से वह सूख नहीं जाता, इसी तरह शरीरों की
क्षति होने से जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता। जीव कभी भी नहीं मरता, यह सत् आत्मा तू ही है।